अक्तूबर 21, 2009

कहीं दूर दृष्टि दोष से तो पीड़ित नहीं हैं राहुल?

रंजीत कुमार रंजन
आजकल राहुल गाँधी का दलित प्रेम और गरीब दर्शन सिर चढ़कर बोल रहा है। राहुल मीडिया में भी सुर्खियाँ बटोर रहे हैं। दूसरी तरफ़ विरोधी दलों का पसीना छुट रहा है। लोग आनन-फानन में अनाप-शनाप बोल रहे हैं। सपा वाले लोग राहुल को राजनीति का बच्चा कह कर अपनी भौहें तैर रहे हैं तो भाजपा एवं बहन मायावती इसे नौटंकी कह रही है। लोग असल मुद्दों तक पहुँच हीं नहीं पा रहे हैं। बेचारे राहुल को कितना तकलीफ पहुँचता होगा कि कोई उनकी परेशानी जाने बिना हवा में बयानबाजी कर रहे हैं। कोई उनकी परेशानी समझने को तैयार नहीं, यूँ हीं लोग आलोचना करते जा रहे हैं। तारीफ की जानी चाहिए आरएसएस वालों का, देर हीं सही उनकी परेशानी को समझा और तारीफ कर डाली। अपनी सहानुभूति राहुल को दे दी।
विरोधी पार्टियों की एक आदत होती है। स्थिति का अध्ययन नहीं करती सीधे डायरेक्ट हो जाती है। देखिये! आरएसएस वालों ने अध्ययन किया। मैंने अध्ययन किया, पाया कि लगता है राहुल दूर दृष्टि दोष से पीड़ित हैं।
"दूर दृष्टि दोष" एक ऐसा डिसआर्डर है जिससे पीड़ित व्यक्ति दूर की वस्तु साफ-साफ देख सकता है लेकिन नज़दीक की वस्तु उसे नज़र नहीं आती।
राहुल आजकल भारत की खोज कर रहे हैं। जवाहर लाल नेहरू ने भी भारत की खोज से संबंधित "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" लिखा, शायद राहुल घर के इस पुस्तक को नही पढ़े और उच्च शिक्छा के लिए चले गए सात समंदर पार। उन्हें भारत का कोई विश्वविद्यालय नज़र नहीं आया, उन्हें नज़र आया होर्वार्ड यूंनिवर्सिटी, लन्दन। पढ़ाई पुरी करने के बाद उन्हें नज़र आया भारत। जुड़ गए अपने परिवार के खानदानी पेशे से। अमेठी से सांसद निर्वाचित हुए। अमेठी से उन्हें अमेठी, रायबरेली, बस्ती, श्रीबस्ती का गरीबी , बेरोजगारी नज़र नहीं आया। उन्हें नज़र आई उडीसा में दलितों की स्थिति। चल दिए उडीसा, उनके दिल में उमड़ा दलित प्रेम, खाया दलितों के घर खाना, और बन गए मीडिया के हीरो। अब उनकी नज़र और सार्प हो चुकी थी। hyper metropia अपना जलवा दिखा रहा था। उडीसा से उन्हें नज़र आ रहा था उत्तरप्रदेश। उत्तरप्रदेश से उन्हें वहां के गरीबों-दलितों की स्थिति नज़र नही आती थी। उडीसा से नज़र आ गई। पहुँच गए यु०पी०, बिना प्रशाशनिक सूचना के, दलितों के घर खाए खाना और बिताये रात। मीडिया फिर सर-आंखों पर बिठाया। मायावती को भी लगा जोर का झटका धीरे से, सुरछा का हवाला देकर साधी निशाना, लेकिन फिर चुक गई असल मर्ज़ पकड़ने में। खैर राहुल यु० पी० से दिल्ली आते कि उनकी नज़र झारखण्ड पर गया। पहुँच गए झारखण्ड, शहीद इंसपेक्टर फ्रान्शिस के बहाने, युवाओं का दिल जीतने। लेकिन इस बार एक नई बात हो गई, झारखण्ड से उन्हें दिल्ली नज़र आ गई। दिल्ली से उन्हें दिल्ली कभी नज़र नही आई। झारखण्ड से नज़र आ गई। सो दिल्ली को खोजने वे निकल पड़े साइकिल से। विडम्बना देखिये, राहुल के सुरछाकर्मी महँगी गाड़ियों से और राहुल साइकिल से दिल्ली खोज कर रहे थे। ये नौटंकी नहीं तो और क्या है? मगर ठहरिये! इतनी जल्दी दोष मत दीजिये। अभी और भी बाते बाकी है।
जे० एन0 यु० में आयोजित एक सभा में राहुल गाँधी ने एक प्रश्न उठाया कि "क्या सभी राजनीतिक पार्टियाँ लोकतान्त्रिक है..? उनके जेहन में भाजपा, बसपा, सपा, शिवसेना, राजद, लोजपा, राकंपा.....रही होगी। उन्होंने कभी अपने गिरेबान में नहीं झाँका होगा। झाँका भी होगा तो कांग्रेस में परिवारवाद नज़र नहीं आया होगा उन्हें। दोष उनका नहीं है, क्या करे बेचारे दृष्टि दोष से पीड़ित जो हैं... उन्हें कैसे समझाया जाये के परिवारवाद के मसले पर सबसे पहले कांग्रेस का हीं ओवरवायलिंग की आवश्यकता है।
दूर दृष्टि दोष से राहुल पीड़ित हैं तो इसमें राहुल का क्या दोष है? कभी-कभी यह जेनेटिक भी होता है। जवाहरलाल नेहरु को भी यह दिसआर्डर था, तभी तो उन्हें अपनी पत्नी कमला नेहरु नज़र नहीं आती थी। उन्हें नज़र आती थी भारत के अंतिम गवर्नर जेनर लोर्ड माउन्टबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन। राजीव गाँधी को भी सबकुछ इटली में ही नज़र आता था। उसके बाद जो हुआ सबके सामने है. अब राहुल की बारी है. शादी की उम्र है, लेकिन उनकी नज़र में कोई भारतीये नहीं स्पेनिश लड़की है. इसमें भी राहुल का कोई दोष नहीं है, ऊपर वाले का दोष है, बेचारे पीड़ित जो हैं...अब स्थिति-परिस्थिति का अध्ययन कीजिये. कितना ख़राब लगता है जब लोग बीमार को बीमार कहते हैं, पागल को पागल कहते हैं, अँधा को अँधा कहते हैं.....सोचिये.....कितना खराब लगता होगा राहुल को जब लोग उनकी आलोचना करते होंगे. कितना दर्द होता होगा उनको? कोई तो होता जो उनकी परेशानी समझता? ओह.....बेचारे राहुल!
हाँ! भारत को खोजते-खोजते एक बदलाव आया है राहुल में, दलित-प्रेम करते-करते गरीब दर्शन करने लगे हैं। दृष्टि दोष के कारण हीं सही भारत खोज की नयी नौटंकी एवं गरीब दर्शन, दर्शन का नया शास्त्र अध्ययन करने का मौका मिल रहा है। मायावती जी आप भी उनकी परेशानी को समझिये और बोलिए जय हों राहुल बाबा की!
चलते-चलते.....
जिन्हें नींद में चलने की बीमारी है,
वे क्या जाने पग हल्का या भारी है
पैरों से मिटटी का गहरा नाता है,
इतनी समझ रहे तो फिर हितकारी है.

अक्तूबर 17, 2009

व्हाइट हाउस में दिवाली...

सबसे पहले तमाम देशवासियों, मित्रों, ब्लॉग साथियों, एवं पाठकों को दिवाली की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनायें!
यूँ तो हम हर साल दिवाली मानते हैं। पर इसबार की दिवाली कुछ खास है। हिन्दुओं का यह महान पर्व अब अपनी रौशनी की चपेट में व्हाइट हाउस को भी ले ली है। कहते हैं न ये दीया जहाँ भी रहेगा रौशनी लुटायेगा। अब व्हाइट हाउस में रौशनी लुटा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने वैश्विक शान्ति के लिए वैदिक मंत्रोच्चारण "तमसो माँ ज्योतिर्गमय॥" के बीच व्हाइट हाउस में दीप जलाकर दिवाली मनाई और वे इस पर्व पर व्यक्तिगत तौर पर शुभकामना देने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए। व्हाइट हाउस के ईस्ट रूम में वुधवार को हुए एक कार्यक्रम में ओबामा के कहा "मैं समझता हूँ कि यह उपर्युक्त समय है जब हम इस कार्य की शुरुआत छुट्टियों के समय दिवाली से कर रहे हैं, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतिक है।" इस प्रकार ओबामा व्हाइट हाउस में दिवाली मनाने वाले पहले राष्ट्रपति बन गए हैं। इससे दुनियां भर के करोड़ों हिन्दुओं, जैनियों, सिखों, और कुछ बौद्ध धर्मावलम्बियों के प्रकाशोत्सव का आधिकारिक सम्मान हुआ है।
नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित बराक हुसैन ओबामा द्वारा व्हाइट हाउस में दिवाली मनाना तथा पुरे विश्व को शान्ति का संदेश देना एक नई पहल है। इससे अमरिका में रह रहे हिन्दुओं के अलावा तमाम भारतीयों को खुश होना स्वाभाविक है। व्हाइट हाउस में हिंदू पंडित द्वारा संस्कृत में वैदिक मंत्रोच्चारण व ओबामा द्वारा उस पंडित को सम्मानित करते देखना सुखद अनुभव रहा। ऐसा लगा ओबामा भले हीं शान्ति के लिए अभी बहुत कुछ नहीं किए हों लेकिन वे करना चाहते हैं। नोबेल शान्ति पुरस्कार ने उनकी जिम्मेदारी और बढ़ा दी हैं। वे भाषा, जाती, धर्म-संप्रदाय से ऊपर उठकर पुरी दुनिया में शान्ति लाना चाहते हैं, जरुरत है उनकी भावना को समझने की, सहयोग करने की।
पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों ने अमेरिका का इमेज हीं ऐसा बना दिया है कि लोग अमेरिका को हमेशा शक की निगाह से देखते हैं। जॉर्ज बुश ने तो हद हीं कर दी थी। पाकिस्तान का मसला हो या अफगानिस्तान या फिर इरान, बुश का रवैया संदेह से परे नहीं रहा। बुश साहब इराक में हीं परेशान रहे। रही-सही कसर मुन्तजिर-अल-जैदी ने पुरी दी। अमेरिका का इज्जत इराक में तार-तार हो गया।
बिल क्लिंटन के समय क्लिंटन एवं रुसी राष्ट्रपति ब्लादिर पुतिन के साथ एक ही मेज पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को डिनर करते देखना बड़ा दिलचस्प था। तब भारतीये शक्ति का एहसास दुनियां के दोनों शक्तिशाली देशों के राष्ट्रध्य्छों को हो चुका था। अब ओबामा इराक सहित पुरे विश्व में शान्ति लाने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान को सहयोग राशिः अभी भी जारी है। व्हाइट हाउस में घी का दीपक जल चुका है, लेकीन उसकी रौशनी से बराक ओबामा पाकिस्तान के हरकतों को पढ़ पाते हैं या नहीं यह तो उनकी बौधिक छमता पर निर्भर है। अगर ऐसा हुआ तो वे दुनिया के लिए इतिहास पुरूष बन जायेंगे, नहीं तो लोग यही कहेंगे दीपक तले अंधेरे में रह गए ओबामा। और-तो-और- नोबेल पुरस्कार का भी अपमान होगा।
मैं यही दुआ करता हूँ कि बराक हुसैन ओबामा ने बुराई पर अच्छाई की जीत की शुरुआत दिवाली के दिन से करने को कहा है, उनका प्रयास सफल हो। हमारी शुभकामनायें उनके साथ है।
चलते-चलते.....
एक वो दिवाली थी एक यह दिवाली है
उजड़ा हुआ गुलशन है रोता हुआ माली हा
बाहर है उजाला मगर दिल में है अँधेरा

समझो न इसे रात यह है गम का सवेरा
क्या दीप जलाएं हम तकदीर हीं काली है
एक वो दिवाली थी एक यह दिवाली है।

अक्तूबर 03, 2009

कल के लिए है मायावती का सोच.....

मायावती को घेरने की एक और कोशिश चल रही है। मूर्तियों के मामले में विपछी पार्टियों की आलोचना झेल रही उत्तरप्रदेश सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने भी दो टूक कह दिया है कि २६०० करोड़ की लगत से पार्कों में मूर्तियाँ लगाने के कैबिनेट के फैसले की न्यायिक समिक्छा की जाएगी। फिलहाल कोर्ट ने निर्माण कार्य पर रोक लगा रखा है, जिसमे प्रदेश के कई शहरों में बन रहे पार्कों के अलावा नॉएडा में बन रहे अम्बेदकर पार्क भी शामिल है।
विचारनीये प्रश्न यह है कि एक गरीब प्रदेश की मुखिया, जहाँ की सरकार अशिछा , गरीबी,बेरोजगारी,किसानो की बदहाली,सुखा जैसे समस्याओं से जूझ रही है, २६०० करोड़ से स्थिति सुधारा जा सकता था, मायावती इतने रूपये पार्कों व नेताओं के मूर्तियाँ लगाने पर क्यों तुली हैं।
कहते हैं मायावती जमीन से शुरुआत कर आज राजनीतिक शिखर पर है। वो भी उस राज्य की जिसने देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए हैं। जहाँ जातीयता की लडाई चरमसीमा पर होती है। ऐसे में मायावती का राजनीतिक सफर कितना मुश्किलों से गुजरा होगा ये मायावती से अच्छा कौन बयां कर सकता है। राजनीति, सत्ता एवं सत्ता के गलियारों का खट्टी-मिट्ठी स्वाद चखी मायावती आज हिंदुस्तान की एक परिपक्व नेत्री हैं, जिनका गिनती भारत के भावी प्रधानमंत्री में होती है। इतना परिपक्व नेत्री मूर्तियों व पार्कों के नामपर इतने रूपये खर्च कर केन्द्र सरकार, कोर्ट तथा विपछी पार्टियों का निशाना क्यों बन रही हैं। यह सिर्फ़ वोट की राजनीति है या कल का भारत के लिए कोई नया सोच? इसपर विचार करना होगा।
जो कांग्रेस तथा कांग्रसनीत सरकार मायावती की आलोचना कर रही है वह पिछले ६० सालों में क्या की है? हर शहर-नगर के चौक-चौराहों पर गाँधी परिवार के मूर्ति लगाने, सरकारी जनकल्याण योजनाओं का नाम गाँधी परिवार के किसी सदस्य के नाम पर रखने के अलावा किया हीं क्या है कांग्रेस ने? तब तो कोई विरोध नहीं हुआ? आज विरोध इसलिए हो रहा है कि रूपये मायावती द्वारा खर्च किये जा रहे हैं। कांग्रेस द्वारा होता तो आज भी कोई कुछ नहीं बोलता, तब लोगों को दलित प्रेम नज़र आता या सिर्फ जवाहर, इंदिरा, राजीव की मूर्तियाँ लगती, जिसके लोग आदि हों चुके हैं. इनकी मूर्ति मायावती भी लगवाती तो वो अच्छी रहतीं, केंद्र सरकार शाबाशी देती और मामला अदालत में भी नहीं जाता. लेकीन दिक्कत यह है कि मूर्तियाँ कांशीराम की लग रही है, अम्बेदकर की लग रही है, मायावती की लग रही है और यही लोगों को खटक रहा है.
मूर्तियों के सहारे हीं सही मायावती ने लोगों को अहसास करा दी कि कांग्रेस ने आजतक क्या की है। अगर सुप्रीम कोर्ट ने पार्क व मूर्तियों के निर्माण कार्य पर रोक लगा भी देती है तो यह मायावती की जीत होगी। क्योंकि मूर्ति लगाने व तुष्टिकरण की राजनीति कांग्रेस की देन है, देर हीं सही लोगों को समझ में आ गया होगा। इसलिए हम कह सकते हैं मायावती एक सोची-समझी रणनीति के तहत काम कर रही है. वह पढ़ी-लिखी तथा काबिल नेत्री हैं. वह समाज से अगड़ा-पिछड़ा, ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाकर एक सभ्य समाज बनाना चाहती हैं, जहाँ हर कोई सामाजिक सम्मान के साथ जी सके. जरुरत है मायावती के हर चल को बारिकी से समझने की जिसमे कुछ सन्देश हैं कल के लिए.
चलते-चलते.......
राह चलते आजमाए गए हम
बाद इसके भी सताए गए हम
इस अदालत के अजब हैं फैसले
दोष उनका था बुलाए गए हम.

सितंबर 21, 2009

राहुल की नई नौटंकी....

कभी दलितों के घर खाना खाने, कभी सुरछा घेरा तोड़कर प्रशंसकों से मिलकर सुर्खियाँ बटोरने वाले राहुल गाँधी आजकल एक नई नौटंकी के कारण चर्चा में हैं। चंद दिनों पहले कांग्रेस सुप्रिमो सोनिया गाँधी की इकोनॉमी क्लास में मुंबई यात्रा उस दिन की प्रमुख ख़बर बनी। राहुल ने अगले हीं दिन शताब्दी एक्सप्रेस के कुर्सीयान से लुधियाना तक की सफर की और मीडिया में सुर्खियाँ बटोरी। माँ-बेटे के इस नौटंकी से भले हीं कुछ हज़ार रूपये की बचत हुयी, लेकिन आम गरीब-गुरबा जनता का ध्यान महंगाई,गरीबी,बेरोजगारी ,किसानो द्वारा आत्महत्या, पाक-चीन द्वारा घुसपैठ ,पुअर गवर्नेंस से हटकर सादगी और कटौती पर बँट गया। यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है। ख़बर आयी की राहुल कलावती से मिलने गए। अच्छी बात है। लेकिन, अकेले विदर्भ में हजारो किसान आत्महत्या कर चुके हैं उनकी विधवाओं का सुध संप्रग सरकार ने कभी ली? देश में लगभग 80% लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं तथा लगभग 65% लोग 20 रूपये में दैनिक गुजारा करते हैं। ऐसे देश में संप्रग सरकार के कई रईश मंत्री जनता के रुपयों से लाखों रूपये प्रतिदिन खर्च कर पांचसितारा होटलों में ऐशो-आराम करते हैं। राहुल जी आपकी पार्टी तथा सरकार आम आदमी की बात करती है, इकोनॉमी क्लास की बात करती है, क्या आप बता सकते हैं कि आपकी सरकार या पार्टी में कितने मंत्री या सांसद साधारण परिवार से हैं?
सरकारी योजनाओं में भ्रस्टाचार की गंभीरता को रेखांकित करते हुए अक्सर कहा जाता है कि एक रूपये में ८५ पैसे भ्रस्त तत्वों की जेब में पहुँच जाते हैं। ख़ुद राहुल गाँधी ने इसे स्वीकारा है। जिस नरेगा की सफलता का ढोल पीटकर यूपीये सरकार दोबारा सत्ता में आयी है, उसी नरेगा के क्रियान्वयन में जैसी धांधली हो रही है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पुरा रुपया हीं खाया जा रहा है। यह सच है कि राहुल सच्चाई कबुलते हैं, लेकिन सिर्फ़ सच्चाई कबूलने से सुधार नहीं हो जायेगी। चंद हज़ार रूपये बचाने के लिए सादगी का नौटंकी करने वाले सोनियां-राहुल का ध्यान नरेगा तथा कई और सरकारी योजनाओं पर क्यों नही जाता जहाँ करोड़ों का घोटाला हो रहा है।
चलते-चलते.......
मरियल ने पाई कुर्सी और चंगा हो गया
नेताजी ने फूंकमारी तो दंगा हो गया
हिलने लगा है जबड़ा और दुःख रही शरीर
कल गांधीवादियों से मेरा पंगा हो गया।

मई 30, 2009

आसमान नहीं जीत लाये राहुल...

कांग्रेस 204 सीट जीत क्या गयी उसका पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे हैं। 1984 में 414 सीट जीतनेवाली कांग्रेस इसबार 204 सीट पाकर जीत की जश्न की आगोश में इतना मदहोश है कि सच्चाई स्वीकारने से कतरा रही है। इस चुनाव का एक हीं सच्चाई है कि भाजपा हारी है, न कि कांग्रेस जीती है। जीत का सेहरा जिस प्रकार राहुल गाँधी के सर बांधा जा रहा है, उससे साफ है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में परिवारतंत्र किस कदर हावी है। यह सच है कि कांग्रेस से कई युवा इसबार संसद पहुंचे हैं। लेकिन उनका पृष्ठभूमि पर नज़र डालने से सच्चाई कुछ और भी नज़र आता है। मैं यहाँ कुछ युवा सांसदों का जिक्र कर रहा हूँ, जो कांग्रेस का झंडा लेकर संसद पहुंचे हैं।
* ज्योतिरादित्य सिंधिया : पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया के बेटे हैं।
* सचिन पायलट : पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलेट के पुत्र हैं।
* १५वीं लोकसभा में सबसे युवा संसद २६ वर्षीय मुहम्मद हमदुल्ला सईद : पूर्व केंद्रीय मंत्री पी० एम० सईद के बेटे हैं।
* संदीप दीक्षित : दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र हैं।
* जगन रेड्डी : आँध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वाई० एस० रेड्डी के पुत्र हैं।
* नितेश राणे : महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे के पुत्र हैं।
* जितिन प्रसाद : पूर्व कांग्रेसी नेता जितेन्द्र प्रसाद सिंह के पुत्र हैं।
यानी जितने भी युवा कांग्रेस के बैनर तले संसद पहुंचे हैं वे जमीं से राजनीतिक सफ़र शुरू कर वहां नहीं पहुंचे हैं। बल्कि एक आम कार्यकर्ता संघर्ष करते-करते जहाँ तक पहुँच पाता है वहां से उनकी शुरुआत हुयी है। कहने में संकोच नहीं इन्हें राजनीति विरासत में मिली है, जो वंशवाद का प्रतिक है।
अजीब सी विडम्बना है कि 60 साल की परिपक्व हो चुकी भारतीये लोकतंत्र में ज्यादातर सत्ता कांग्रेस के हाथों में रही है, और 150 साल की बूढी हो चुकी कांग्रेस अभी भी एक परिवार की पार्टी बनी हुयी है। जवाहर, इंदिरा, राजीव, सोनियां के बाद अब राहुल की ताजपोशी की तैयारी है। राहुल 14 वीं लोकसभा के सदस्य भी रहे हैं। ताजपोशी के पहले उनकी कार्यछमता का आकलन करना जरुरी है। कांग्रेसी युवराज राहुल गाँधी 14वीं लोकसभा में 14 सत्रों में आयोजित 296 बैठकों में महज़ चार बार अपने उदगार व्यक्त किये, तथा सिर्फ तीन सवाल पूछे। वहीँ सचिन पायलेट ने 16 बार सवाल पूछे तथा एक बार परमाणु करार पर राय व्यक्त किये। यहाँ मैं एक और युवा संसद का जिक्र करना चाहूँगा। वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह ने 52 बार बोले, 590 सवाल दागे, दमदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी, तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपने राय व्यक्त किये।
जहाँ तक राहुल की बात है, लंदन की आबोहवा में पले-बढे राहुल गमले में उगी हुयी पौधे की तरह थे, जिन्हें भारतीय राजनीति की हवा से खुद उनकी माँ की आँचल बचा रही थी। अचानक उन्हें अमेठी की खानदानी धंधे की चाभी थमा दी गयी। राहुल जहाँ हैं वहां पहुँचाने में चाटुकारों का भी कम योगदान नहीं है, जो खुद काबिल और योग्य होते हुये भी सिर्फ मैडम को खुश करने के लिये चाटुकारिता में पी0 एच0 डी0 कर बैठे और राहुल को भावी प्रधानमंत्री तक घोषित कर दिया।
वहीँ राहुल खुद को नेता से ज्यादा अपने को गाँधी सिद्ध करने में लगे रहे। भारत में भारत को खोजने का क्या तात्पर्य था? गरीबों और दलितों के घर खाना खाकर वे क्या दिखाना चाहते हैं? उनके दिमाग में ये बात क्यों नहीं आयी कि यह गरीबी उसी कांग्रेस की देन है जिसकी कमान कभी उनके पिता राजीव गाँधी, दादी इंदिरा गाँधी, परनाना जवाहरलाल नेहरु के हाथों में था। वही इंदिरा गाँधी जिसने "गरीबी हटाओ" का नारा देकर सत्ता में आयी थी। आज राहुल उन्ही ठगे गए गरीबों के घर मुस्कुराकर खाना खाते हैं, और उन्हें शर्म नहीं आती। अगर वो गरीबों के सच्चा हितैषी बनना चाहते तो कांग्रेस छोड़ अलग राजनीतिक सफ़र की शुरुआत करते तब वे जमीं से आसमां तक पहुँचते। दलितों से मिलने के बाद महँगी साबुन से नहाने वाले राहुल ये कैसी भारत की खोज कर रहे हैं? कौन नहीं जानता भारत की गरीबी के बारे में? कौन नहीं जानता भ्रष्टाचार के बारे में? कौन नहीं जानता अशिक्षा, बाल -शोषण, बाल-मजदूरी, किसानों की समस्या, जातीयता, प्रांतीयता के बारे में? आज जब इन समस्याओं का निदान की आवश्यकता है, राहुल समस्या खोज रहे हैं। आज जब बीमारी पता है, इलाज की आवश्यकता है तो राहुल बीमारी ढूंढ़ रहे हैं। आप सोच सकते हैं राहुल कैसा डाक्टर साबित होंगे।
यू0 पी0 में कांग्रेस 20 सीट जीत क्या गयी जैसे राहुल आसमान जीत लाये। वरुण गाँधी का आपत्तिजनक बयान और उसके बाद मायावती सरकार द्वारा उनपर NSA लगाना, ये दोनों घटनायें कांग्रेस को 20 तक पहुंचा दी, वरना अमेठी-रायबरेली के बाद तीन होना मुश्किल था। वरुण पर रासुका लगाने के कारण ब्रह्म्बन वोट बीएसपी से कटकर कांग्रेस की तरफ चले गए, क्यों कि वहां बीजेपी टक्कर में नहीं थी। वहीँ मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस के तरफ हुआ. इसमें राहुल का योगदान नहीं वरुण और मायावती का योगदान ज्यादा है।
व्यक्तिगत रूप से मैं राहुल गाँधी का प्रशंसक रहा हूँ। लेकिन नेता राहुल का मैं आलोचक हूँ। राजनीति में आते हीं उन्हें जिसप्रकार की सुविधाएँ व प्रमोशन मिला उतना क्या दुसरे कांग्रेसी युवाओं को मिला? ज्योतिरादिया सिंधिया, सचिन पायलट जो काबिल भी हैं और राहुल से ज्यादा राजनीति को समझने में सक्छम भी, को भी इतनी सुविधायें मिलता तो ये भी राहुल की तरह "इंडियन यूथ आइकन" होते. संपन्न हुए चुनाव में अकेले राहुल 1,50,000 km से ज्यादा की यात्रा किये. इतना मौका क्या किसी और को मिला?
इतना भाषण लिखने का उद्देश्य यही है कि इस बार जितने युवा लोकसभा में पहुंचे हैं, वे विरासत और बैशाखी के बदौलत पहुंचे हैं। राजनीतिक पार्टियाँ भले हीं युवा-युवा चिला रही रही थी, लेकिन भारतीय युवाओं का ध्यान चुनाव पर कम और IPL पर जयादा था। आखिर भारत के युवा कब जागेंगे?कबतक इन घटिया नेताओं के करतूतों को देखते रहेंगे? कबतक राजनीति से नफरत करेंगे? देश को बचाने के लिए एक-न-एक दिन उन्हें आना हीं होगा। वरना अज के नेता बाजारबाद के इस दौर में, जब खुद को भी बेचने से बाज़ नहीं आते, कहीं देश का हीं सौदा न कर डालें।
नेताओं के घर यहाँ अब बन गए दुकान,
डर है कहीं बेच न दें कल ये हिंदुस्तान।
चलते-चलते.......
चुनाव के दौरान मैं सैकड़ो लोगों से पूछा- देश का अगला प्रधानमंत्री किसे बनाना चाहिए? जितना जवाब आया उसमे एक नाम राहुल गाँधी भी था। मगर राहुल प्रधानमंत्री क्यों? जवाब सिर्फ एक- "राहुल युवा हें"। तो क्या सिर्फ युवा होना हीं प्रधानमंत्री बनने का मापदंड है? ये कुरफाती दिल मुझसे हीं पूछ बैठा, युवा तो मैं भी हूँ, तो क्या मैं भी प्रधानमंत्री बन सकता हूँ? गाँव का एक गंवार लड़का सपना और महत्वाकांछा की दुनिया में खुली आंख सैर कर रहा था। अपने-आपको को राहुल गाँधी से तुलना जो कर रहा था. और एक जगह समानता भी थी. राहुल की तरह मैं भी युवा हूँ। हालाँकि मेरी उम्र अभी मात्र 23 साल है। कई अंतर हैं मुझमे और राहुल में: राहुल एक ऐसे घराने के शहजादे हैं जिसने आजाद भारत में सबसे ज्यादा दिन शासन की है, और मै, एक साधारण किसान परिवार का बेटा। राहुल राजसी ठाट-बाट के साथ विदेशों में पढाई करके भारत में उगी-उगाई राजनीतिक फसल काटने की तयारी में हैं, और मुझे खुद रास्ता बनाकर आगे बढ़ना पड़ रहा है। जो भी अंतर मुझमे और राहुल में मिले वो प्रधानमंत्री बनने का मापदंड नहीं है सिर्फ एक को छोड़कर कि राहुल लोकसभा के सदस्य हैं।
16 मई को मेरे एक प्यारे मित्र ने पूछ डाला "तुम राहुल गाँधी की आलोचना और लिखोगे?" मैं जवाब दिया आप लिखने की बात करते हो अगर आने वाला समय में चुनाव लड़ने की जरुरत पड़ी तो मैं पहला चुनाव राहुल गाँधी के खिलाफ लड़ना चाहूँगा।




blogs

मई 29, 2009

बन गयी सरकार...

जनता का फ़ैसला आ गया
गयी NDA हार
लो फिर से बन गयी
UPA की सरकार ।

मनमोहन की सरकार बनी
मंत्रालय बँटा बेमेल
लालू जी की छुट्टी हुयी
ममता चढ़ी रेल।

वित् मिला प्रणव को
अंटोनी करेंगे रच्छा
युवा ज्योतिरादित्य , जितिन को
जो कुछ मिला वही अच्छा।

एस० एम्० कृष्णा विदेश गये
वासन को मिला जहाज़
गृह मिला चितंबरम को
जोशी करेंगे ग्रामीण विकास।

कपिल सिब्बल को मानव संसाधन
राहुल-सोनियां रहेंगे खाली
आनेवाली संकट से करेंगे
मनमोहन की रखवाली।

जल संसाधन करेंगी मीरा
सोनी करेंगी सुचना प्रसार
लो फिर से बन गयी
10-जनपथ की सरकार।

मई 09, 2009

जूते की महिमा...

अगर आप हिन्दी साहित्य से ताल्लुक रखते होंगे तो "पादूका वियोग पठ्याण" जरुर पढ़ा होगा। जिसमे जूते चोरी से बचने के उपायों की चर्चा की गई है।अगर आप हिंदी सिनेमा के शौकीन हैं तो राजकपूर साहब का फिल्म "बूट पॉलिश" जुरुर याद होगा जिसमे दो गरीब बच्चे जूते को अपना जीविकापार्जन का साधन बनाते हैं। और फिल्म "हम आपके हैं कौन" का गाना 'जूते लेलो पैसे देदो' हमारे समाज के रस्म-रिवाजों को बड़े खुबसूरत ढंग से दर्शाया गया है। और अगर आप इतिहास को खंघालें तो रामायण भरत ने राम का खडाऊं अपने सर पर रखकर वन से अयोध्या लाये थे, तथा राजसिंहासन पर रखकर उसकी पूजा किया करते थे। एक उदहारण वाराणसी से-कहते हैं मदनमोहन मालवीय जब काशी विश्वविद्यालय बनवा रहे थे तब उन्होंने वहां के तत्कालीन राजा नबाव से सहयोग राशिः की थी। राजा नबाव राशिः देने से मूकर गए तो मालवीय साहब ने नबाव का जूता ही मांग डाला और राजा नबाव ने दे भी दिया। मालवीय साहब ने उस जूते को वाराणसी चौराहे पर नीलामी के लिए बोली लगवा दी. राजा नबाव ने अपनी इज्जत जाते देख अपनी ही जूता भरी रकम देकर ख़रीदा और फिर विश्वविद्यालय बनवाने में मदद भी की।
ये तो थी इतिहास की बातें, आज के समय में जूता दूनिया की राजनीति को इतना महिमामंडित करेगा ये किसी ने सोचा नहीं था। इराक में एक पत्रकार सम्मलेन में अमरीकी रास्त्रपति जोर्जे बुश पर जूता फेंका क्या गया जैसे जूता फेंकने की प्रतियोगिता ही चल पड़ी। बुश पर फेंके गए जूते की बोली लगी ५० करोड़ रूपये और मुंतजिर अल जैदी बना इराकवासियों के दिल में हीरो और आये सैकडो शादी का प्रस्ताव। उसके बाद चीन के प्रधानमंत्री जियाबाओ पर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने जूता फेका, जब वे कम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भाषण दे रहे थे। मीडिया में ये घटना खासकर मुंतजिर का जूता इतना सुर्खियाँ बटोरा कि चुनावी रंग में रंगे भारत में भी कुछ लोगों ने जूते को बनाया विरोध जताने का एक तरीका और पाया सुर्खियाँ. निशाने पर रहे गृहमंत्री पी. चिताम्बरम, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी.एम. इन वेटिंग लालकृष्ण आडवानी, और कर्णाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा। कोई दोषियों को कर रहा है माफ, तो कोई दे रहा है इसे विरोधियों की साजिश। लेकिन हाँ! पत्रकार जनरैल सिंह के जूते का हीं कमाल था कि कांग्रेस ने जगदीश taitalar और सज्जन कुमार का टिकट काट दिया, और जनरैल सिंह सिख समुदाय के लिए हीरो बन गए।
जूते मारना हमारे समाज का चलता-फिरता उदाहरण है. लेकिन जो जूता नेताओं पर फेंके जा रहे हैं वह सचमुच विरोध जताने का एक तरीका है या फिर गिरते मानवीय मूल्यों का उदाहरण? इसपर आनेवाला समय में और बहस होना बाकी है।