मई 02, 2012

ग्रामीण पर्यटन की असीम संभावनाएं है गया के ‘भूरहा’ में

बचपन से ही ऋषि दुर्वासा की भूमि दुर्वासा नगर यानि भूरहा (गुरुआ) से मेरा लगाव रहा है.  तब भूरहा को हम सिर्फ तीन कारणों से जानते थे. एक प्रसिद्ध भूरहा मेला, दूसरा छठ तथा तीसरा बड़ी संख्या में यहाँ होने वाली निर्धन परिवारों की शादियाँ. तब हमें पता नहीं था कि आम जनता से लेकर शासक-प्रशासक की नज़र में उपेक्षित रहनेवाली ये भूमि इतनी समृद्ध है कि कई प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों में इसका वर्णन स्वर्णिम अक्षरों में किया गया है. रामायण की इन पक्तियों के द्वारा मैं अपनी बात रखने कि कोशिश कर रहा हूँ.


                                         अयोध्यायाद्यश्रथि रामो, गयाश्राद्धार्थानिकैस्सह।
                                         दिशा क्रोशा निशि-विश्रामो गयायार्नैऋत्यां दिशि।।
 ( पूर्ण श्राद्ध्-रत्नाकर, गुरूपद, बनारस, गया श्राद्ध, सर्ग-4, 13वां श्लोक, वेंकटेश प्रेस, मुंबई ।)
 अनुवाद:  अयोध्या से दशरथ नंदन श्री राम अपनी सेना के साथ श्राद्ध करने के लिए चलते हुए गया से दस कोस  की दूरी पर नैऋृ दिशा में रात्री-विश्राम के लिए।
अगस्त्युवाच-
काश्या-गया मार्गे शोणं पुनः पुना नदी।
तदग्रे गुरूवने गच्छ अत्रीसुनू सुतः शिवः।।
निशि गमयाश्रमे रामः तदिशाने गयाशिरः।
तत्र गत्वा महाबाहो पिण्डं देही श्रद्धया।। 
(ब्रह्म-रामायण, मुमुच्छु-काण्ड्, सर्ग-47, श्लोक संख्या- 67-६८)
अनुवाद- श्री राम को समझाते हुए अगस्त्य मुनी बोले:
हे राम! काशि से गया की ओर जानेवाले सोन और पुनपुन दो सजला नदियां हैं, इसके आगे गुरूवन में जाना। वहां पर अत्रि-अनुसूया के तीसरे पुत्र दुर्वासा के आश्रम में रात्री विश्राम करना। वहां ईशान कोण में गयाशिर है, वहां जाकर हे महाबाहो, तुम श्रद्धा के साथ पिण्ड दान देना।


कई नज़रिए से विचार करने के बाद लगता है कि इस पवित्र भूमि में ग्रामीण पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने की सभी संभावनाएं मौजूद हैं, मगर इसके लिए कुछ कदम उठाने होंगे।
 
भूरहा की प्रकृतिजनित संभावनाएं जैसे मौसम, जलकुण्ड, मनोरम दृश्य लोगों को दुर्वासा नगर के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि यहां के जल ग्रहण करने से पेट के कई रोग दूर हो जाते हैं। साथ ही यहां नहाने से कई प्रकार की त्वचा बिमारियां ठीक हो जाती हैं। यहां के कण-कण में आकर्षण है।
साल में दो बार लगने वाला विशाल मेंला भी इस जगह की खास पहचान है। बैशाखी के दिन सतुआनी मेंले में लाखों की संख्या में पर्यटक यहां आते हैं और स्फूटीत जलधारा से नहा-धोकर श्रद्धालू सतु ग्रहण करते हैं। माना जाता है कि गर्मी में सतु खाना स्वास्थ्य के दृष्टीकोण से अच्छा है। ऋषि दुर्वासा भी यहां सतु ही खाते थे। इस दिन सतु खाना बिहार में एक परंपरा है। मगर एक साथ हजारों लोगों को सतु खाते देखना बड़ा मनभावन लगता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भी लाखों की संख्या में लोग यहां स्नान करने आते हैं। इस दिन भी यहां बड़ा मेला लगता है। छठ पूजा में लोग दूर-दूर से अर्ध्य देने आते हैं। यहां खूबसूरत  सूर्य मंदिर भी है।
पिण्ड दान के लिए यूँ तो ‘गया’ पूरी दूनिया में प्रसिद्ध है। लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि भूरहा में भी पिण्ड दान होता है। गरीब तबके के लोग भारी संख्या में यहां पिण्ड दान करते हैं, क्योंकि यहां खर्च कम पड़ता है और आसानी से हो भी जाता है। यहां सौ से ज़्यादा सालों से पिण्ड दान होते आ रहा है।

हिन्दुओं के लिए भूरहा किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है। इसके ठीक बगल में बसे दुब्बा गढ़ से सैंकड़ो की संख्या में निकली मूर्तियां प्रमाणित करती है कि इसका संबंध भगवान बुद्ध से भी रहा है। इतिहासकार मानते हैं कि भगवान बुद्ध बोधगया से सारनाथ की यात्रा के दौरान इसी रास्ते से गुजरे थे, और यहां से कुछ दूरी पर बसे गुनेरी गांव में तो वे रात भी गुजारे थे, जिसका प्रमाण मिलता है। हजारों की संख्या में मूर्तियां चोरी होने के बावजूद अभी भी भूरहा में तथा दुब्बा गढ़ पर सैकड़ों की संख्या में मूर्तियां मौजूद हैं। घर हो या बगीचा, स्कूल हो या खेत-खलीहान हर जगह भगवान बुद्ध की मूर्ति है। कहीं लोग उसे स्थानीय देवाता के रूप में पूजा कर रहे हैं तो कई लोग अज्ञानतावश कलाकृत पत्थरों का इस्तेमाल उसपर बैठने या दूसरे कामों में कर रहे हैं। हालांकि इन मूर्तियों में ज्यादातर विक्षिप्त अवस्था में हैं। भगवान बुद्ध की जितनी मूर्तियां यहां हैं उतनी और कहीं नहीं हैं। भले ही वक्त की दौड़ में यह राजगीर और बोधगया से काफी पीछे छूट गया हो लेकिन यहां का मनोरम दृश्य पर्यटकों का पीछा नहीं छोड़ता।


सवाल यह है कि भूरहा को ग्रामीण पर्यटन स्थल में विकसित किया जाता है तो क्या होगा? भूरहा के आसपास की भौगोलिक स्थिति पर नज़र डालें तो गुनेरी, नसेर में भी बुद्ध की मूर्तियां हैं जो गवाह है कि इस क्षेत्र से बौद्ध धर्म का पुराना संबंध रहा है। साथ ही मां मांडेश्वरी पहाड़ी का मनोरम और हरी-भरी वादियां तथा गुरूआ की गरिमामयी इतिहास भी गुरूआवासियों को गुरूआवासी होने पर न सिर्फ गर्व का एहसास दिलाती है, बल्कि यहां की मिट्टी और नैसर्गिक सौंदर्य उन्हें बार-बार खींचती है, भले ही वे देश-विदेश के किसी कोने में क्यूँ  न हों। यही कारण है कि यहां ग्रामीण पर्यटन को आज नया आयाम मिल रहा है।

आज के समय में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वैश्विकरण के इस दौर में पर्यटन उद्योग एक बड़ा उद्योग के रूप में सामने आ रहा है। आजकल भारत के ग्रामीण पर्यटक स्थल विदेशी सैलानियों को भी बहुत भा रहा है। भूरहा को बौद्ध स्थल तथा पर्यटक स्थल के रूप में पहचान मिलने से भूटान, जापान, चीन, थाईलैंड, म्यानमार, श्रीलंका, कोरिया आदि देशों के बौद्ध सैलानियों का आकर्षण  बढ़ेगा। जिससे सरकार को भी राजस्व में फायदा होगा। साथ ही इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोज़गार के भी अवसर उपलब्ध होंगे। आज बाजारीकरण के इस दौर में देखा जा रहा है कि लघु और छोटे उद्योग हाशिए पर है। भूरहा को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने से लघु उद्योग के लिए एक बाजार उपलब्ध हो पाएगा जिसके माध्यम से लोग पारंपरागत कला और संस्कृति को कायम रख सकते हैं। मगर सबसे बड़ी बात ये होगी कि हम अपनी इतिहास के साथ न्याय कर पायेंगे। ज़रूरत है आमलोगों के साथ-साथ युवाओ की भागीदारी बढ़ाने की ताकि इस प्रयास में नई उर्जा का भी संचार हो।
(वेब मीडिया 'जनोक्ति' में 2 मई को प्रकाशित. http://www.janokti.com/ )