मई 30, 2009

आसमान नहीं जीत लाये राहुल...

कांग्रेस 204 सीट जीत क्या गयी उसका पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे हैं। 1984 में 414 सीट जीतनेवाली कांग्रेस इसबार 204 सीट पाकर जीत की जश्न की आगोश में इतना मदहोश है कि सच्चाई स्वीकारने से कतरा रही है। इस चुनाव का एक हीं सच्चाई है कि भाजपा हारी है, न कि कांग्रेस जीती है। जीत का सेहरा जिस प्रकार राहुल गाँधी के सर बांधा जा रहा है, उससे साफ है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में परिवारतंत्र किस कदर हावी है। यह सच है कि कांग्रेस से कई युवा इसबार संसद पहुंचे हैं। लेकिन उनका पृष्ठभूमि पर नज़र डालने से सच्चाई कुछ और भी नज़र आता है। मैं यहाँ कुछ युवा सांसदों का जिक्र कर रहा हूँ, जो कांग्रेस का झंडा लेकर संसद पहुंचे हैं।
* ज्योतिरादित्य सिंधिया : पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया के बेटे हैं।
* सचिन पायलट : पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलेट के पुत्र हैं।
* १५वीं लोकसभा में सबसे युवा संसद २६ वर्षीय मुहम्मद हमदुल्ला सईद : पूर्व केंद्रीय मंत्री पी० एम० सईद के बेटे हैं।
* संदीप दीक्षित : दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र हैं।
* जगन रेड्डी : आँध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वाई० एस० रेड्डी के पुत्र हैं।
* नितेश राणे : महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे के पुत्र हैं।
* जितिन प्रसाद : पूर्व कांग्रेसी नेता जितेन्द्र प्रसाद सिंह के पुत्र हैं।
यानी जितने भी युवा कांग्रेस के बैनर तले संसद पहुंचे हैं वे जमीं से राजनीतिक सफ़र शुरू कर वहां नहीं पहुंचे हैं। बल्कि एक आम कार्यकर्ता संघर्ष करते-करते जहाँ तक पहुँच पाता है वहां से उनकी शुरुआत हुयी है। कहने में संकोच नहीं इन्हें राजनीति विरासत में मिली है, जो वंशवाद का प्रतिक है।
अजीब सी विडम्बना है कि 60 साल की परिपक्व हो चुकी भारतीये लोकतंत्र में ज्यादातर सत्ता कांग्रेस के हाथों में रही है, और 150 साल की बूढी हो चुकी कांग्रेस अभी भी एक परिवार की पार्टी बनी हुयी है। जवाहर, इंदिरा, राजीव, सोनियां के बाद अब राहुल की ताजपोशी की तैयारी है। राहुल 14 वीं लोकसभा के सदस्य भी रहे हैं। ताजपोशी के पहले उनकी कार्यछमता का आकलन करना जरुरी है। कांग्रेसी युवराज राहुल गाँधी 14वीं लोकसभा में 14 सत्रों में आयोजित 296 बैठकों में महज़ चार बार अपने उदगार व्यक्त किये, तथा सिर्फ तीन सवाल पूछे। वहीँ सचिन पायलेट ने 16 बार सवाल पूछे तथा एक बार परमाणु करार पर राय व्यक्त किये। यहाँ मैं एक और युवा संसद का जिक्र करना चाहूँगा। वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह ने 52 बार बोले, 590 सवाल दागे, दमदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी, तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपने राय व्यक्त किये।
जहाँ तक राहुल की बात है, लंदन की आबोहवा में पले-बढे राहुल गमले में उगी हुयी पौधे की तरह थे, जिन्हें भारतीय राजनीति की हवा से खुद उनकी माँ की आँचल बचा रही थी। अचानक उन्हें अमेठी की खानदानी धंधे की चाभी थमा दी गयी। राहुल जहाँ हैं वहां पहुँचाने में चाटुकारों का भी कम योगदान नहीं है, जो खुद काबिल और योग्य होते हुये भी सिर्फ मैडम को खुश करने के लिये चाटुकारिता में पी0 एच0 डी0 कर बैठे और राहुल को भावी प्रधानमंत्री तक घोषित कर दिया।
वहीँ राहुल खुद को नेता से ज्यादा अपने को गाँधी सिद्ध करने में लगे रहे। भारत में भारत को खोजने का क्या तात्पर्य था? गरीबों और दलितों के घर खाना खाकर वे क्या दिखाना चाहते हैं? उनके दिमाग में ये बात क्यों नहीं आयी कि यह गरीबी उसी कांग्रेस की देन है जिसकी कमान कभी उनके पिता राजीव गाँधी, दादी इंदिरा गाँधी, परनाना जवाहरलाल नेहरु के हाथों में था। वही इंदिरा गाँधी जिसने "गरीबी हटाओ" का नारा देकर सत्ता में आयी थी। आज राहुल उन्ही ठगे गए गरीबों के घर मुस्कुराकर खाना खाते हैं, और उन्हें शर्म नहीं आती। अगर वो गरीबों के सच्चा हितैषी बनना चाहते तो कांग्रेस छोड़ अलग राजनीतिक सफ़र की शुरुआत करते तब वे जमीं से आसमां तक पहुँचते। दलितों से मिलने के बाद महँगी साबुन से नहाने वाले राहुल ये कैसी भारत की खोज कर रहे हैं? कौन नहीं जानता भारत की गरीबी के बारे में? कौन नहीं जानता भ्रष्टाचार के बारे में? कौन नहीं जानता अशिक्षा, बाल -शोषण, बाल-मजदूरी, किसानों की समस्या, जातीयता, प्रांतीयता के बारे में? आज जब इन समस्याओं का निदान की आवश्यकता है, राहुल समस्या खोज रहे हैं। आज जब बीमारी पता है, इलाज की आवश्यकता है तो राहुल बीमारी ढूंढ़ रहे हैं। आप सोच सकते हैं राहुल कैसा डाक्टर साबित होंगे।
यू0 पी0 में कांग्रेस 20 सीट जीत क्या गयी जैसे राहुल आसमान जीत लाये। वरुण गाँधी का आपत्तिजनक बयान और उसके बाद मायावती सरकार द्वारा उनपर NSA लगाना, ये दोनों घटनायें कांग्रेस को 20 तक पहुंचा दी, वरना अमेठी-रायबरेली के बाद तीन होना मुश्किल था। वरुण पर रासुका लगाने के कारण ब्रह्म्बन वोट बीएसपी से कटकर कांग्रेस की तरफ चले गए, क्यों कि वहां बीजेपी टक्कर में नहीं थी। वहीँ मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस के तरफ हुआ. इसमें राहुल का योगदान नहीं वरुण और मायावती का योगदान ज्यादा है।
व्यक्तिगत रूप से मैं राहुल गाँधी का प्रशंसक रहा हूँ। लेकिन नेता राहुल का मैं आलोचक हूँ। राजनीति में आते हीं उन्हें जिसप्रकार की सुविधाएँ व प्रमोशन मिला उतना क्या दुसरे कांग्रेसी युवाओं को मिला? ज्योतिरादिया सिंधिया, सचिन पायलट जो काबिल भी हैं और राहुल से ज्यादा राजनीति को समझने में सक्छम भी, को भी इतनी सुविधायें मिलता तो ये भी राहुल की तरह "इंडियन यूथ आइकन" होते. संपन्न हुए चुनाव में अकेले राहुल 1,50,000 km से ज्यादा की यात्रा किये. इतना मौका क्या किसी और को मिला?
इतना भाषण लिखने का उद्देश्य यही है कि इस बार जितने युवा लोकसभा में पहुंचे हैं, वे विरासत और बैशाखी के बदौलत पहुंचे हैं। राजनीतिक पार्टियाँ भले हीं युवा-युवा चिला रही रही थी, लेकिन भारतीय युवाओं का ध्यान चुनाव पर कम और IPL पर जयादा था। आखिर भारत के युवा कब जागेंगे?कबतक इन घटिया नेताओं के करतूतों को देखते रहेंगे? कबतक राजनीति से नफरत करेंगे? देश को बचाने के लिए एक-न-एक दिन उन्हें आना हीं होगा। वरना अज के नेता बाजारबाद के इस दौर में, जब खुद को भी बेचने से बाज़ नहीं आते, कहीं देश का हीं सौदा न कर डालें।
नेताओं के घर यहाँ अब बन गए दुकान,
डर है कहीं बेच न दें कल ये हिंदुस्तान।
चलते-चलते.......
चुनाव के दौरान मैं सैकड़ो लोगों से पूछा- देश का अगला प्रधानमंत्री किसे बनाना चाहिए? जितना जवाब आया उसमे एक नाम राहुल गाँधी भी था। मगर राहुल प्रधानमंत्री क्यों? जवाब सिर्फ एक- "राहुल युवा हें"। तो क्या सिर्फ युवा होना हीं प्रधानमंत्री बनने का मापदंड है? ये कुरफाती दिल मुझसे हीं पूछ बैठा, युवा तो मैं भी हूँ, तो क्या मैं भी प्रधानमंत्री बन सकता हूँ? गाँव का एक गंवार लड़का सपना और महत्वाकांछा की दुनिया में खुली आंख सैर कर रहा था। अपने-आपको को राहुल गाँधी से तुलना जो कर रहा था. और एक जगह समानता भी थी. राहुल की तरह मैं भी युवा हूँ। हालाँकि मेरी उम्र अभी मात्र 23 साल है। कई अंतर हैं मुझमे और राहुल में: राहुल एक ऐसे घराने के शहजादे हैं जिसने आजाद भारत में सबसे ज्यादा दिन शासन की है, और मै, एक साधारण किसान परिवार का बेटा। राहुल राजसी ठाट-बाट के साथ विदेशों में पढाई करके भारत में उगी-उगाई राजनीतिक फसल काटने की तयारी में हैं, और मुझे खुद रास्ता बनाकर आगे बढ़ना पड़ रहा है। जो भी अंतर मुझमे और राहुल में मिले वो प्रधानमंत्री बनने का मापदंड नहीं है सिर्फ एक को छोड़कर कि राहुल लोकसभा के सदस्य हैं।
16 मई को मेरे एक प्यारे मित्र ने पूछ डाला "तुम राहुल गाँधी की आलोचना और लिखोगे?" मैं जवाब दिया आप लिखने की बात करते हो अगर आने वाला समय में चुनाव लड़ने की जरुरत पड़ी तो मैं पहला चुनाव राहुल गाँधी के खिलाफ लड़ना चाहूँगा।




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मई 29, 2009

बन गयी सरकार...

जनता का फ़ैसला आ गया
गयी NDA हार
लो फिर से बन गयी
UPA की सरकार ।

मनमोहन की सरकार बनी
मंत्रालय बँटा बेमेल
लालू जी की छुट्टी हुयी
ममता चढ़ी रेल।

वित् मिला प्रणव को
अंटोनी करेंगे रच्छा
युवा ज्योतिरादित्य , जितिन को
जो कुछ मिला वही अच्छा।

एस० एम्० कृष्णा विदेश गये
वासन को मिला जहाज़
गृह मिला चितंबरम को
जोशी करेंगे ग्रामीण विकास।

कपिल सिब्बल को मानव संसाधन
राहुल-सोनियां रहेंगे खाली
आनेवाली संकट से करेंगे
मनमोहन की रखवाली।

जल संसाधन करेंगी मीरा
सोनी करेंगी सुचना प्रसार
लो फिर से बन गयी
10-जनपथ की सरकार।

मई 09, 2009

जूते की महिमा...

अगर आप हिन्दी साहित्य से ताल्लुक रखते होंगे तो "पादूका वियोग पठ्याण" जरुर पढ़ा होगा। जिसमे जूते चोरी से बचने के उपायों की चर्चा की गई है।अगर आप हिंदी सिनेमा के शौकीन हैं तो राजकपूर साहब का फिल्म "बूट पॉलिश" जुरुर याद होगा जिसमे दो गरीब बच्चे जूते को अपना जीविकापार्जन का साधन बनाते हैं। और फिल्म "हम आपके हैं कौन" का गाना 'जूते लेलो पैसे देदो' हमारे समाज के रस्म-रिवाजों को बड़े खुबसूरत ढंग से दर्शाया गया है। और अगर आप इतिहास को खंघालें तो रामायण भरत ने राम का खडाऊं अपने सर पर रखकर वन से अयोध्या लाये थे, तथा राजसिंहासन पर रखकर उसकी पूजा किया करते थे। एक उदहारण वाराणसी से-कहते हैं मदनमोहन मालवीय जब काशी विश्वविद्यालय बनवा रहे थे तब उन्होंने वहां के तत्कालीन राजा नबाव से सहयोग राशिः की थी। राजा नबाव राशिः देने से मूकर गए तो मालवीय साहब ने नबाव का जूता ही मांग डाला और राजा नबाव ने दे भी दिया। मालवीय साहब ने उस जूते को वाराणसी चौराहे पर नीलामी के लिए बोली लगवा दी. राजा नबाव ने अपनी इज्जत जाते देख अपनी ही जूता भरी रकम देकर ख़रीदा और फिर विश्वविद्यालय बनवाने में मदद भी की।
ये तो थी इतिहास की बातें, आज के समय में जूता दूनिया की राजनीति को इतना महिमामंडित करेगा ये किसी ने सोचा नहीं था। इराक में एक पत्रकार सम्मलेन में अमरीकी रास्त्रपति जोर्जे बुश पर जूता फेंका क्या गया जैसे जूता फेंकने की प्रतियोगिता ही चल पड़ी। बुश पर फेंके गए जूते की बोली लगी ५० करोड़ रूपये और मुंतजिर अल जैदी बना इराकवासियों के दिल में हीरो और आये सैकडो शादी का प्रस्ताव। उसके बाद चीन के प्रधानमंत्री जियाबाओ पर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने जूता फेका, जब वे कम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भाषण दे रहे थे। मीडिया में ये घटना खासकर मुंतजिर का जूता इतना सुर्खियाँ बटोरा कि चुनावी रंग में रंगे भारत में भी कुछ लोगों ने जूते को बनाया विरोध जताने का एक तरीका और पाया सुर्खियाँ. निशाने पर रहे गृहमंत्री पी. चिताम्बरम, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी.एम. इन वेटिंग लालकृष्ण आडवानी, और कर्णाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा। कोई दोषियों को कर रहा है माफ, तो कोई दे रहा है इसे विरोधियों की साजिश। लेकिन हाँ! पत्रकार जनरैल सिंह के जूते का हीं कमाल था कि कांग्रेस ने जगदीश taitalar और सज्जन कुमार का टिकट काट दिया, और जनरैल सिंह सिख समुदाय के लिए हीरो बन गए।
जूते मारना हमारे समाज का चलता-फिरता उदाहरण है. लेकिन जो जूता नेताओं पर फेंके जा रहे हैं वह सचमुच विरोध जताने का एक तरीका है या फिर गिरते मानवीय मूल्यों का उदाहरण? इसपर आनेवाला समय में और बहस होना बाकी है।