मार्च 21, 2016

प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बदहाल, तो कैसे होगा भारत निर्माण?

हाल में आई विश्व बैक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्राथमिक विद्यालय के 23.6 प्रतिशत शिक्षक स्कूल नहीं जाते हैं, जिससे देश को एक खरब 62 करोड़ रूपए का सलाना नुकसान हो रहा है। अध्ययन में भारत के ग्रामीण इलाकों के विद्यालयों पर ज्यादा ध्यान दिया गया है। इससे पहले आई एक रिपार्ट के अनुसार भारत में 52 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद विद्यालय छोड़ देते हैं यानी वे माध्यमिक शिक्षा के लिए नहीं जाते। अब सवाल यह है कि जब प्राथमिक शिक्षा की ही स्थिति ऐसी है तो फिर शिक्षा के अधिकार कानून का क्या होगा? 2020 या 2022 तक भारत को विकसित करने का सपना कैसे पूरा होगा? क्या हम इसी बदहाल शिक्षा व्यवस्था के भरोसे भारत निर्माण करेंगे।
बदहाल शिक्षा व्यवस्था के कारणों को समझने के लिए थोड़ी गहराई से चर्चा करनी होगी। आज प्राथमिक विद्यालयों में किसके बच्चे पढ़ रहे हैं और उन्हें कौन पढ़ा रहा है? इस सवाल के जवाब में ही बहुत कुछ छुपा हुआ है। अध्ययन से आप पाएंगे कि प्राथमिक विद्यालयों में आज आर्थिक रूप से बिल्कुल निचले पायदान क़े लोगों के बच्चे पढ़ रहे हैं, जो अपने बच्चों को किसी भी प्राइवेट विद्यालय में पढाने में सझम नहीं हैं, उनके बच्चे सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़तेे हैं। अब दूसरा सवाल, यहां पढ़ाता कौन है? क्या आपने कभी सुना है कि किसी युवक का सपना प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बनना है? सुना भी होगा तो चंद लोगों के द्वारा, अमुमन किसी का सपना प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बनने का नहीं होता। जब वे कहीं के नहीं होते तो आधे-अधूरे मन से प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बनते हैं। बस नौकरी करने और जींदगी गुजारने के लिए, उसमें उनका कोई शौक जुड़ा नहीं होता। जब स्कूल जाने वाले बच्चे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक, दोनों ही अधूरे मन से मजबूरी में विद्यालय जाते हों तो फिर विद्यालयों से उत्कृष्ट प्रदर्शन की उम्मीद कैसे की जा सकती है। 
कई विद्यालय हैं जहां कुछ शिक्षक बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन मध्याह्न भोजन और फेल न करने के नियम आने के बाद बच्चों में पढ़ाई के प्रति लगाव कम हुआ है। शिक्षक भी कभी खिचड़ी के हिसाब में तो कभी चुनाव, आदमी, भेड़-बकरी गिनने जैसे सरकारी कामों में उलझे रहते हैं, जिसका प्रभाव प्राथमिक शिक्षा पर पड़ा है।
2011 के जनगणना के अनुसार भारत में 25.2 प्रतिशत बच्चे ही प्राथमिक विद्यालय जा पाते हैं। मात्र 15.7 प्रतिशत बच्चे माध्यमिक शिक्षा के लिए जाते हैं और 11.1 प्रतिशत मैट्रिक करते हैं। जब प्राथमिक शिक्षा का ही ये हाल है तो समझ सकते हैं उच्च शिक्षा की स्थिति क्या होगी। ब्रिटिश काउंसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार 2025 में पढ़ाई करनेवाले उम्र के सबसे ज्यादा लोग भारत के ही होंगे। क्वांटिटी में तो भारत आगे होगा लेकिन क्वालिटी में सुधार किए बगैर भारत निर्माण और शिक्षित भारत का सपना अधूरा ही रहेगा। 

नीतीश का नया दांव क्या सफल होगा यूपी में?

विधानसभा चुनाव के पहले चार दलों के विलय की तैयारी

रंजीत रंजन

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जनता परिवार के छः दलों के विलय का प्रयास असफल रहने के बाद जदयू नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आगामी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक नया दांव खेला है। चार दलों जदयू, राष्टीªय लोकदल, झारखंड विकास मोर्चा(प्रजातांत्रिक) और समाजवादी जनता पार्टी का बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश में विलय की तैयारी चल रही है। इस सिलसिले में कई दौर की उच्च स्तरीय बैठकें हो चुकी हैं। इससे पहले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जनता दल (सेक्युलर), जदयू, राजद, इंडियन नेशनल लोक दल, समाजवादी जनता पार्टी  और समाजवादी पार्टी के विलय के असफल प्रयास हो चुके हैं। सारे गुटों ने मिलकर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को नए दल का मुखिया भी घोषित कर दिया था, लेकिन चुनाव के ठीक पहले सपा ने महागठबंधन के खिलाफ अपने उम्मीदवार खडे़ कर दिए थे। यूपी चुनाव के पहले एक और विलय का प्रयास चल रहा है। देखनेवाली बात होगी नीतीश कुमार का यह दंाव सफल होता है या नहीं। 
यूपी की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करें तो ये चारो दल हाशिए पर हैं। विधानसभा चुनाव 2012 में राष्ट्रीय लोकदल को केवल 9 सीटें मिली थीं जबकि जदयू खाता भी नहीं खोल पाई थी। 1991 में यूपी में जनता दल के 22 सांसद थे, जब मुलायम सिंह यादव और चंद्रशेखर ने वीपी सिंह से हटकर समाजवादी जनता पार्टी बनाई थी। तब से राज्य में जनता दल और बाद में जनता दल युनाईटेड का प्रभाव घटता गया। 1996 में शरद यादव की अनुवाई वाली इस पार्टी के पास 6 विधायक थे, जो 2002 में यह संख्या घटकर केवल 2 रह गई। आज राज्य में जदयू की स्थित बहुत ही खराब है, उसका एक बड़ा कारण राज्य में पार्टी कैडर का नहीं होना है। वहीं राष्ट्रीय लोकदल का दायरा भी घटता जा रहा है। 2007 के चुनाव में रालोद ने 10 और 2012 में 9 सीटें ही जीती थीं। समाजवादी जनता दल की हालत भी बेहद खराब है। दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री बाबुलाल मरांडी को भी झारखंड में जदयू जैसा सहयोगी की जरूरत है। झारखंड में भाजपा मामूली बहुमत के साथ सत्ता में है तो यूपी में भाजपा सत्ता में वापसी के लिए विसात तैयार कर रही है। राज्य की जनता ने 2007 में बसपा को तो 2012 में सपा को पूर्ण बहुमत दी है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत ने जनता परिवार को एक साथ आने को मजबूर किया था, उसी मजबूरी में बिहार में जदयू, राजद और कांग्रेस का महागठबंधन बना। बिहार में महागठबंधन की भारी जीत के कारण ही नीतीश कुमार इस प्रयोग को यूपी में भी आजमाना चाहते हैं।

नए दल के सामने चुनौती

विलय के बाद जो भी दल अस्तित्व में आएगा उसके सामने चुनौती कम नहीं होगी। जदयू का जनाधार वोट लगभग न के बराबर है तो रालोद की पकड़ एक जाति विशेष वोट पर ही मानी जाती है। भाजपा, सपा और बसपा की तरह जदयू, रालोद और समाजवादी जनता दल के पास आधार वोट की कमी है। भाजपा, सपा और बसपा अभी से ही चुनावी तैयारी में जुटी है जबकि नए दल को वजूद में आने के बाद इसे खड़ा होने में ही काफी वक्त लगेगा। राज्य में अगर वोटों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ तो इस नए दल के लिए चुनौति और बढ़ जाएगी क्योंकि ऐसी स्थिति में मुस्लिम मतदाताओं का रूझान सपा या बसपा की ओर ज्यादा होगा।

बाबुलाल कुशवाहा पर होगी नजर

एनआरएचएम घोटाले के आरोपी और मायावती सरकार के पूर्व मंत्री बाबुलाल कुशवाहा जन अधिकार मोर्चा के बैनर तले रैलियां कर रहे हैं। उनकी रैलियों में उमड़ रही भीड़ बता रही है कि श्री कुशवाहा की कुशवाहा जाति के लोगों पर अच्छी पकड़ है। घोटाले में आरोपी होने के कारण नीतीश कुमार श्री कुशवाहा को अपने साथ लाने का जोखिम उठाएंगे, ऐसा नहीं लगता। लेकिन श्री कुशवाहा चुनाव में किस दल के साथ गठबंधन करेंगे, इस बात से भी चुनावी नतीजे प्रभावित होंगे। नीतीश कुमार जन अधिकार मोर्चा से ज्यादा पिस पार्टी से समझौता करने के लिए इच्छुक दिख रहे हैं।

अप्रैल 01, 2013

बिहारियों की भावना का हुआ रामलीला मैदान से सौदा

‘अधिकार-रैली नहीं पोलीटिकल-वार्गेनिंग रैली कहिए
 बीते 17 मार्च को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक ऐतिहासिक रैली हुर्इ। बिहार में सत्ताधारी पार्टी जनता दल युनाइटेड की तरफ से आयोजित इस अधिकार रैली का उददेश्य बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना था। किसी राज्य के सत्तासीन पार्टी के द्वारा देश की राजधानी में भीड़ के दृष्टिकोण से इतनी बड़ी रैली शायद इससे पहले कभी नहीं हुई।

यूँ तो राजधानी कर्इ ऐतिहासिक रैलियों का गवाह रही है। और जब-जब इस मैदान की ऐतिहासिक रैलियों की चर्चा होती है तो भला 25 जुन 1975 की उस रैली को कोर्इ कैसे भूल सकता है जिसमें जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सरकार को तानाशाह करार देते हुए उसे उखाड़ फेंकने का आहवान किया था। मैं जननायक जयप्रकाश नारायण की चर्चा इसलिए कर रहा हंू कि 17 मार्च को हुर्इ रैली के अगुआ उन्हीं के चेले नीतीश कुमार थे। जब इस रैली की तैयारी चल रही थी तब लग रहा था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार केन्द्र सरकार और कांग्रेस के खिलाफ हुंकार भरेंगे और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा की मांग के साथ-साथ महंगार्इ व भ्रष्टाचार जैसे मुददों पर भी सरकार पर हमला बोलेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में रह रही बिहारियों की एक बड़ी आबादी अपने राज्य के विकास और असिमता के नाम पर रामलीला मैदान में तो चली आर्इ मगर भीड़ से गदगद नीतीश लीला को समझ नहीं पाई।  अगले दिन अखबार के पन्नों से साफ हो गया कि नीतीश कुमार ने बिहारियों के भावनाओं का सौदा केन्द्र सरकार के साथ कर डाला जिसकी झलक नीतीश कुमार के भाषण से भी मिलती है, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वितमंत्री पी. चिदंबरम की तारीफ की है। साथ ही उस बात को भी समझने की जरूरत है जिसमें उन्होंने कहा है कि आपलोगों को न दाएं देखने की जरूरत है न बाएं, केवल सीधे देखने की जरूरत है। इसका मतलब ये हुआ कि न कांग्रेस की तरफ देखने की जरूरत है न भाजपा की तरफ, सिर्फ नीतीश कुमार की तरफ देखने की जरूरत है, जो उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में प्रमोट करेगा या कामभर राजनीतिक हिस्सेदारी दे देगा, नीतीश उसी के साथ जाएंगे। अपने भाषण में उन्होंने अन्य पिछड़े राज्यों को भी साथ चलने का न्योता दिया और कहा कि जो पिछड़े राज्यों का साथ देगा बिहार उसके साथ खड़ा होगा। इसके द्वारा नीतीश ने ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और अखिलेश सिंह यादव को भी पटाने की कोशिश की है।

हालांकि नीतीश की यह चाल समझने के लिए रामलीला मैदान भी जाने की जरूरत नहीं थी। रैली की पूर्व संध्या पर ही सूत्रों से खबर निकलकर सामने आर्इ कि नीतीश कुमार केन्द्र सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलने जा रहे, जितना पालीटिकल वार्गेनिंग होना था हो चुका। अब सिर्फ तारीफ में कसीदे पढ़े जाएंगे और हुआ भी यही। 18 मार्च को प्रधानमंत्री के साथ हुर्इ नीतीश कुमार की मुलाकात और 19 मार्च को अखबारों के पन्नों पर छपी तस्वीरों के सहित खबरें भी आपको बहुत कुछ अहसास करा सकती हैं। जिसमें साफ तौर पर कहा गया कि विशेष राज्य का दर्जा के नाम पर नीतीश कुमार ने भविष्य की राजनीति की ओर कदम बढ़ाए। इस दौरान उनकी मुलाकात पी. चिदंबरम और योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया से भी हुर्इ। सियासी गलियारों में ‘बैक-डोर डील की खबरों के बीच वित्तमंत्री ने 23 मार्च को कहा कि केन्द्र फिलहाल किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं है। लेकिन इस वक्तव्य को भी सिर्फ राजनीतिक बयान ही मानना चाहिए, क्योंकि ये भी डील का ही हिस्सा है, और उसी डील के तहत रैली के बाद बिहार को कर्इ योजनाओं में प्राथमिकता भी मिली है। बजट सत्र के दौरान श्री चिदंबरम ने ही तो कहा था कि विशेष राज्य का दर्जा देने के शर्तों पर फिर से विचार करने की जरूरत है। केन्द्र सरकार से डीएमके की समर्थन वापसी और मुलायम के तेवरों के बीच मनमोहन सिंह अपनी सरकार की सिथरता के प्रति आश्वस्त हैं तो उसके पीछे भी शायद नीतीश नामक टैबलेट ही है जिसका इस्तेमाल आकस्मिक दवाई के रूप में किया जा सकता है।

इस रैली को सफल बनाने के लिए पार्टी के लगभग सभी मंत्रियों, सांसदों, विधायकों सहित सभी जिला अध्यक्षों को एनसीआर में तकरीबन दो सप्ताह पहले से लगाया गया था। ताकि इस क्षेत्र में रह रहे बिहार के लोग रैली में आ सकें। पार्टी नेताओं के द्वारा इन क्षेत्रों में रह रहे दिहाड़ी पर काम कर रहे बिहारियों को बताया गया कि अगर विशेष राज्य का दर्जा मिल गया तो उन्हें बिहार में ही नौकरी मिल जाएगी। बिहार का इंफ्रास्ट्रक्चर सुधर जाएगा। बिहार के छात्रों को पढ़ार्इ के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा। भला ऐसा मनमोहक और लोकलुभावन बात पर कौन न फिदा हो जाए। सो भारी तादाद में चल पड़े रामलीला। किसी को क्या जरूरत ये सोचने की कि एक चुनाव जंगल राज के नाम पर और एक चुनाव सुशासन के नाम पर जीतने वाले नीतीश कुमार के पास शायद इसके अलावा और कोर्इ चारा नहीं है। कोर्इ तो बताए नीतीश कुमार के शासनकाल में बिहार में इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर सड़क बनाने के अलावा और कितना काम हुआ है? कितने उधोग धंधे और कितने कल-कारखाने लगे हैं? नौकरशाही व टेबल के नीचे से रूपए लेकर काम करने की प्रक्रिया को बेशर्मी से आगे बढ़ाने के अलावा क्या उप्लब्धी रही है नीतीश सरकार की! अब जब नीतीश कुमार की राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं उड़ान ले रही हैं और खुद को दिल्ली के सिंहासन पर बैठे देखना चाहते हैं तो ऐसे में वे ‘विशेष राज्य का दर्जा के मुददे को ही मोहरा बनाना चाह रहे हैं। जिससे सभी वर्ग के लोग साथ भी आ जाएं और भाजपा को भी तरीके से साध सकें और इन सबों के बीच 2014 के लिए राजनीतिक सौदा भी हो जाए, भले ही इसकी कीमत बिहारियों की भावना और स्वाभिमान ही क्यों न हो! ऐसे समय में जयप्रकाश नारायण की राजनीतिक शैली बरबस याद आ जाती है जिन्होंने राजनीति कभी सत्ता के लिए नहीं बल्कि जनकल्याण के लिए किया था।
चलते-चलते किसी कवि की ये मुझे पंक्तियाँ याद आ रही है…
डुगडुगी ले झोपड़ी के द्वार तक आ जाएंगे
गजब की जादूगरी है जेहन में छा जाएंगे
ये सियासत के मदारी हैं अदा दिखलाएंगे
ये तुम्हारे हाथ से ही मुल्क को खा जाएंगे।

सितंबर 15, 2012

तीन बच्चे घर पर हैं हजारों पहाड़ पर

  • तीस साल में एक लाख से ज्यादा पेड़ लगा चुके हैं सिकंदर
  • ब्रह्मयोनी पहाड़ को पर्यटन स्थल बनाना चाहते हैं सिकंदर
  • घर की आर्थिक हालत खराब लेकिन चिंता पूरे विश्व की

कहा जाता है कि गया में बिना पेड़ के पहाड़ होता है और बिना पानी के नदी। यही बात टिल्हा धर्मशाला के समिप रहनेवाले दिलीप कुमार उर्फ सिकंदर के दिल पर लग गई और उन्होंने पहाड़ों पर वृक्षारोपण करने की ठानी। 46 वर्षीय सिकंदर ने पिछले 30 सालों में ब्रह्मयोनी पहाड़ पर एक लाख से ज्यादा पेड़ लगाए जिसमें से तीस हजार से ज्यादा पेड़ अब बड़े वृक्ष का रूप ले चुके हैं। सिकंदर ने हमें बताया कि 1982 से ही वे पेड़ लगा रहे हैं। इस बार भी छः हजार पेड़ लगाने का लक्ष्य है जिसमें से लगभग दो हजार लगा चुके हैं।

जब हम ब्रह्मयोनी पहाड़ पर पहुंचे तो हमने वहां देखा कि सिकंदर ने देश के तमाम महापुरूषों के नाम पर पेड़ लगाए हैं। जैसेः महात्मा गांधी स्मृति वृक्ष, सरदार पटेल स्मृति वृक्ष आदि। वहां लगाए गए पेड़ों में फलदार वृक्षों जैसे:आमए अमरूद, जामुन, पीपल, बरगद, गुलर, पाकड़ की संख्या अधिक है। उन्होंने हमें बताया कि पक्षियों को आकर्षित करने के लिए फलदार वृक्ष लगाए हैं। विलुप्त हो रहे कई पक्षियों का आवागमन भी शुरू हो गया है।

सिकंदर ने अपनी पढ़ाई-लिखाई दसवीं कक्षा तक की है। लेकिन उन्हें पता है कि दिनों-दिन पेड़ों का काटा जा रहा है जिसका असर जलवायु पर पड़ रहा है। दिनों-दिन बढ़ रही गर्मी और घटता जल स्तर उसी का परिणाम है। यही कारण है कि महज़ एक चापाकल से वे हजारों पेड़ का पटवन करते हैं। गर्मियों के दिनों में तो रात-रात भर, दो-तीन बजे भोर तक पेड़ों का पटवन करते रहते हैं। जिस चापाकल से एक गैलन पानी भरना नागवार गुज़रता है, सिकंदर 50-60 गैलन पानी प्रतिदिन भरते हैं। साथ ही पेड़ों की सुरक्षा के लिए भी काफी इंतजाम करना पड़ता है। किसी प्रकार बांस-बल्ली का जुगाड़ कर वे पेड़ों को घेरते हैं तों जानवरों से बचाव तो हो जाता है, लेकिन अतिक्रमण के कारण भी लोग पेड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। उन्हें इस बात का मलाल है कि बीते तीस साल में सरकार या किसी संस्था के द्वारा किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली।
 
सिकंदर इस बात से चिंतित नहीं हैं कि उनके घर में चुल्हा कैसे जलेगा, दो वक्त की रोटी का इंतजाम कैसे होगा और बच्चों की परवरिश कैसे होगी? जब हमने उनसे पूछा ‘आपके कितने बच्चे हैं?’ तो उन्होंने जवाब दिया ‘तीन घर पर हैं, हजारों पहाड़ पर हैं’। आर्थिक तंगी झेल रहे सिकंदर की चिंता बस इस बात की है कि अगर पेड़-पौधे नहीं रहे तो आनेवाली पिढ़ी को ऑक्सीजन और जल कहां से मिलेगा?

कभी विरान रहनेवाला ब्रह्मयोनी पहाड़ का दृश्य आज हरा-भरा और काफी मनोरम दिखता है। साथ ही बरसात के दिनों में पहाड़ से गिर रहा झरना पर्यटकों को अपनी ओर खींचता है और बड़ी सेख्या में लोग यहां पिकनिक मनाने आते हैं। सिकंदर का सपना है कि इस जगह को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए।

जून 10, 2012

फिर भी डिम्पल निर्विरोध!


बड़े ही सीधे तरीके से डिम्पल यादव कन्नौज लोकसभा सीट से निर्विरोध सांसद चुन ली गई। हालांकि उत्तरप्रदेश में इससे पहले भी ऐसा दो बार हुआ है। 1952 में इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव में पी.सी. टण्डन और 1962 के चुनाव में टिहरी लोकसभा सीट से महाराजा मानवेन्द्र शाह निर्विरोध चुने गए थे। डिम्पल ने उ.प्र. में तीसरी तथा देश में 44 वीं निर्विरोध जीत दर्ज की हैं। चुनाव आयोग के अनुसार 1952 के लोकसभा चुनाव में 10 तथा 1957 के लोकसभा चुनाव में 11 सांसद निर्विरोध जीतकर संसद पहुंचे थे। लेकिन तब और अब की राजनीतिक और समाजिक परिस्थितियों में आसमान जमीन का अंतर है। तब कांग्रेस आजादी की लहर पर उपजी फसल काट रही थी। विपक्ष का अस्तित्व न के बराबर था। आज कांग्रेस, भाजपा, बसपा के अलावा दर्जनों क्षेत्रीय पार्टियां, फिर भी डिम्पल निर्विरोध!

 पिछले विधानसभा चुनाव के सम्पन्न हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां गला फाड़-फाड़कर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रही थी। अचानक से ऐसा क्या हो गया कि इतनी बड़ी राजनीतिक परिपक्वता दिखाई देने लगी कि डिम्पल के खिलाफ किसी भी पार्टी के द्वारा एक उम्मीदवार तक नहीं उतारा गया? इस सवाल के जवाब ढूंढने में जो तथ्य सामने आते हैं वे बड़े मजेदार है, दिलचस्प भी हैं मगर बड़े गंभीर हैं।

कांग्रेस ने तो शुरू से ही कन्नौज में दिलचस्पी नहीं ली। क्यूंकि  उसकी नजर कन्नौज से ज़्यादा राष्ट्रपति भवन पर है, और अपने किसी कठपुतली को राष्ट्रपति भवन भेजने के लिए उसे समाजवादी पार्टी का समर्थन की ज़रूरत होगी। ऐसे समय में कांगे्रस मुलायम परिवार को नाराज करना नहीं चाहती थी। साथ ही ममता की बैशाखी पर टिकी मनमोहन सरकार को आपातकाल के लिए ममता का विकल्प चाहिए, जिसके लिए मुलायम का नाम सटीक बैठता है,  और मुलायम को भी केन्द्र में मंत्री बनने की बेचैनी रहती ही है। इससे साइकिल और हाथ का रिश्ता तो समझ में आता है, मगर बसपा को क्या हो गया, ये समझने की ज़रूरत है। कहने को तो कहा जा सकता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में जनता की मार से बद्हवाश पड़ी बसपा में हिम्मत ही नहीं थी कि सपा से टकराए। सीधे-सीधे तो ये चल सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं। जानकारों के अनुसार मायावती घोटालों से बचने के लिए मुख्यमंत्री की पत्नी के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं की।

अब बात भाजपा की। पहले उत्तरप्रदेश भाजपा चुनाव लड़ने से ही इनकार करती है। फिर आनन-फानन में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी चुनाव लड़ने की घोषणा करते हैं। उम्मीदवार जगदेव यादव समय पर नामांकन करने नहीं पहुंच पाए और चुनाव लड़ने से वंचित रह गए। चाल और चरित्र की बात करने वाली पार्टी की चाल इतनी धीमी थी कि उसके उम्मीदवार समय की कमी के कारण नामांकण दाखिल नहीं कर पाए, आप समझ सकते हैं भाजपा कितनी जिम्मेदार पार्टी है!जो दो लोग नामांकन दाखिल कर पाए थे वे हैं संयुक्त समाजवादी दल के दशरथ शंखवार और निर्दलीय प्रत्याशी संजीव कुमार। इन्होंने भी अपने नाम वापस ले लिए। कहा जा रहा है कि ये सपा के ही डमी उम्मीदवार थे। 

अमुमन कहा जाता है कि सपा गुंडों की पार्टी है। अपराधियों को संरक्षण देती है। तो क्या डिम्पल को निर्विरोध दिल्ली भेजने वाली घटना से मान लिया जाए कि सत्ताधारी पार्टी से सभी लोग सचमुच इतने घबरा गए हैं कि कोई खड़ा होने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाया? क्या राज्य में अपराधियों का बोलबाला होने के आरोप पर एक मुहर है डिम्पल को निर्विराध चुना जाना? या फिर इस खेल में ऐसा भी कोई खेल खेला गया जो आम लोगों की समझ से बाहर हो। क्यूंकि  यहां एक सवाल ये भी है कि 2009 मे आगरा से लोकसभा चुनाव हारनेवाले राजबब्बर ने डिम्पल यादव को अखिलेश सिंह के द्वारा खाली की गई फरोजाबाद सीट के उपचुनाव में एक लाख से ज्यादा वोटों से हराया था। इस बार फिर कन्नौज सीट अखिलेश सिंह के द्वारा ही खाली की गई है, प्रत्याशी भी वही हैं, बस परिणाम अप्रत्याशित है।

मई 02, 2012

ग्रामीण पर्यटन की असीम संभावनाएं है गया के ‘भूरहा’ में

बचपन से ही ऋषि दुर्वासा की भूमि दुर्वासा नगर यानि भूरहा (गुरुआ) से मेरा लगाव रहा है.  तब भूरहा को हम सिर्फ तीन कारणों से जानते थे. एक प्रसिद्ध भूरहा मेला, दूसरा छठ तथा तीसरा बड़ी संख्या में यहाँ होने वाली निर्धन परिवारों की शादियाँ. तब हमें पता नहीं था कि आम जनता से लेकर शासक-प्रशासक की नज़र में उपेक्षित रहनेवाली ये भूमि इतनी समृद्ध है कि कई प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों में इसका वर्णन स्वर्णिम अक्षरों में किया गया है. रामायण की इन पक्तियों के द्वारा मैं अपनी बात रखने कि कोशिश कर रहा हूँ.


                                         अयोध्यायाद्यश्रथि रामो, गयाश्राद्धार्थानिकैस्सह।
                                         दिशा क्रोशा निशि-विश्रामो गयायार्नैऋत्यां दिशि।।
 ( पूर्ण श्राद्ध्-रत्नाकर, गुरूपद, बनारस, गया श्राद्ध, सर्ग-4, 13वां श्लोक, वेंकटेश प्रेस, मुंबई ।)
 अनुवाद:  अयोध्या से दशरथ नंदन श्री राम अपनी सेना के साथ श्राद्ध करने के लिए चलते हुए गया से दस कोस  की दूरी पर नैऋृ दिशा में रात्री-विश्राम के लिए।
अगस्त्युवाच-
काश्या-गया मार्गे शोणं पुनः पुना नदी।
तदग्रे गुरूवने गच्छ अत्रीसुनू सुतः शिवः।।
निशि गमयाश्रमे रामः तदिशाने गयाशिरः।
तत्र गत्वा महाबाहो पिण्डं देही श्रद्धया।। 
(ब्रह्म-रामायण, मुमुच्छु-काण्ड्, सर्ग-47, श्लोक संख्या- 67-६८)
अनुवाद- श्री राम को समझाते हुए अगस्त्य मुनी बोले:
हे राम! काशि से गया की ओर जानेवाले सोन और पुनपुन दो सजला नदियां हैं, इसके आगे गुरूवन में जाना। वहां पर अत्रि-अनुसूया के तीसरे पुत्र दुर्वासा के आश्रम में रात्री विश्राम करना। वहां ईशान कोण में गयाशिर है, वहां जाकर हे महाबाहो, तुम श्रद्धा के साथ पिण्ड दान देना।


कई नज़रिए से विचार करने के बाद लगता है कि इस पवित्र भूमि में ग्रामीण पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने की सभी संभावनाएं मौजूद हैं, मगर इसके लिए कुछ कदम उठाने होंगे।
 
भूरहा की प्रकृतिजनित संभावनाएं जैसे मौसम, जलकुण्ड, मनोरम दृश्य लोगों को दुर्वासा नगर के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि यहां के जल ग्रहण करने से पेट के कई रोग दूर हो जाते हैं। साथ ही यहां नहाने से कई प्रकार की त्वचा बिमारियां ठीक हो जाती हैं। यहां के कण-कण में आकर्षण है।
साल में दो बार लगने वाला विशाल मेंला भी इस जगह की खास पहचान है। बैशाखी के दिन सतुआनी मेंले में लाखों की संख्या में पर्यटक यहां आते हैं और स्फूटीत जलधारा से नहा-धोकर श्रद्धालू सतु ग्रहण करते हैं। माना जाता है कि गर्मी में सतु खाना स्वास्थ्य के दृष्टीकोण से अच्छा है। ऋषि दुर्वासा भी यहां सतु ही खाते थे। इस दिन सतु खाना बिहार में एक परंपरा है। मगर एक साथ हजारों लोगों को सतु खाते देखना बड़ा मनभावन लगता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भी लाखों की संख्या में लोग यहां स्नान करने आते हैं। इस दिन भी यहां बड़ा मेला लगता है। छठ पूजा में लोग दूर-दूर से अर्ध्य देने आते हैं। यहां खूबसूरत  सूर्य मंदिर भी है।
पिण्ड दान के लिए यूँ तो ‘गया’ पूरी दूनिया में प्रसिद्ध है। लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि भूरहा में भी पिण्ड दान होता है। गरीब तबके के लोग भारी संख्या में यहां पिण्ड दान करते हैं, क्योंकि यहां खर्च कम पड़ता है और आसानी से हो भी जाता है। यहां सौ से ज़्यादा सालों से पिण्ड दान होते आ रहा है।

हिन्दुओं के लिए भूरहा किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है। इसके ठीक बगल में बसे दुब्बा गढ़ से सैंकड़ो की संख्या में निकली मूर्तियां प्रमाणित करती है कि इसका संबंध भगवान बुद्ध से भी रहा है। इतिहासकार मानते हैं कि भगवान बुद्ध बोधगया से सारनाथ की यात्रा के दौरान इसी रास्ते से गुजरे थे, और यहां से कुछ दूरी पर बसे गुनेरी गांव में तो वे रात भी गुजारे थे, जिसका प्रमाण मिलता है। हजारों की संख्या में मूर्तियां चोरी होने के बावजूद अभी भी भूरहा में तथा दुब्बा गढ़ पर सैकड़ों की संख्या में मूर्तियां मौजूद हैं। घर हो या बगीचा, स्कूल हो या खेत-खलीहान हर जगह भगवान बुद्ध की मूर्ति है। कहीं लोग उसे स्थानीय देवाता के रूप में पूजा कर रहे हैं तो कई लोग अज्ञानतावश कलाकृत पत्थरों का इस्तेमाल उसपर बैठने या दूसरे कामों में कर रहे हैं। हालांकि इन मूर्तियों में ज्यादातर विक्षिप्त अवस्था में हैं। भगवान बुद्ध की जितनी मूर्तियां यहां हैं उतनी और कहीं नहीं हैं। भले ही वक्त की दौड़ में यह राजगीर और बोधगया से काफी पीछे छूट गया हो लेकिन यहां का मनोरम दृश्य पर्यटकों का पीछा नहीं छोड़ता।


सवाल यह है कि भूरहा को ग्रामीण पर्यटन स्थल में विकसित किया जाता है तो क्या होगा? भूरहा के आसपास की भौगोलिक स्थिति पर नज़र डालें तो गुनेरी, नसेर में भी बुद्ध की मूर्तियां हैं जो गवाह है कि इस क्षेत्र से बौद्ध धर्म का पुराना संबंध रहा है। साथ ही मां मांडेश्वरी पहाड़ी का मनोरम और हरी-भरी वादियां तथा गुरूआ की गरिमामयी इतिहास भी गुरूआवासियों को गुरूआवासी होने पर न सिर्फ गर्व का एहसास दिलाती है, बल्कि यहां की मिट्टी और नैसर्गिक सौंदर्य उन्हें बार-बार खींचती है, भले ही वे देश-विदेश के किसी कोने में क्यूँ  न हों। यही कारण है कि यहां ग्रामीण पर्यटन को आज नया आयाम मिल रहा है।

आज के समय में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वैश्विकरण के इस दौर में पर्यटन उद्योग एक बड़ा उद्योग के रूप में सामने आ रहा है। आजकल भारत के ग्रामीण पर्यटक स्थल विदेशी सैलानियों को भी बहुत भा रहा है। भूरहा को बौद्ध स्थल तथा पर्यटक स्थल के रूप में पहचान मिलने से भूटान, जापान, चीन, थाईलैंड, म्यानमार, श्रीलंका, कोरिया आदि देशों के बौद्ध सैलानियों का आकर्षण  बढ़ेगा। जिससे सरकार को भी राजस्व में फायदा होगा। साथ ही इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोज़गार के भी अवसर उपलब्ध होंगे। आज बाजारीकरण के इस दौर में देखा जा रहा है कि लघु और छोटे उद्योग हाशिए पर है। भूरहा को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने से लघु उद्योग के लिए एक बाजार उपलब्ध हो पाएगा जिसके माध्यम से लोग पारंपरागत कला और संस्कृति को कायम रख सकते हैं। मगर सबसे बड़ी बात ये होगी कि हम अपनी इतिहास के साथ न्याय कर पायेंगे। ज़रूरत है आमलोगों के साथ-साथ युवाओ की भागीदारी बढ़ाने की ताकि इस प्रयास में नई उर्जा का भी संचार हो।
(वेब मीडिया 'जनोक्ति' में 2 मई को प्रकाशित. http://www.janokti.com/ )

अप्रैल 29, 2012

सचिन को राष्ट्रपति बना देते !


सचिन रमेश तेन्दूलकर को राज्यसभा जाना चाहिए था या नहीं, इस विषय पर चौक-चौराहे से लेकर मीडिया और सोशल मीडिया तक बहस चल रही है। सचिन का निर्णय वाकई चौकाने वाला है। कांग्रेस पार्टी से लेकर राष्ट्रपति की बेचैनी तो समझ में आती है, सचिन के सामने कौन सी आफत आ गई थी कि 10 जनपथ में सर टेक आए। दरअसल आपत्ति सचिन  को राज्यसभा जाने या न जाने से नहीं है। ऐसा नहीं है कि सचिन को राज्य सभा जाने से हिन्दुस्तान की किस्मत रातो-रात बदल जाएगी या नहीं जाते तो कोई तुफान आ जाता। सच्चाई तो यही है कि तब भी कुछ नहीं होता अब भी कुछ नहीं होगा।
क्या कोई जवाब दे सकता है कि लता मांगेश्कर को राज्यसभा जाने से देश को कितना फायदा हुआ, शिवाय इसके कि देश के उपरी सदन में उनकी सीट हमेशा खाली ही दिखती है। हां, सचिन के नाम पर कुछ राजनीति जरूर हो जाएगी, जिसकी शुरूआत हो भी चुकी है। विडंबना देखिए, अगस्त 2005 से अफजल गुरू की फांसी की फाईल गृह मंत्रालय से राष्ट्रपति भवन के बीच झूल रही है, एक निर्णय लेने में शर्म महसुस हो रही …और सचिन तेन्दुलकर के नाम पर चंद घंटों में सारी फाइलें और आॅफीसियल औपचारिकताएं पूरी हो गई। देश समझ रही है कि कांग्रेस की ये चाल आगामी चुनाव को लेकर है। कॉमनवेल्थ घोटाले से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला घाटाले से तथा पी.चिदंबरम और अभिषेक मनु सिंघवी के कारनामों से पार्टी और सरकार के चेहरे पहले से ही काले पड़े है। उपर से बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की हरकतें सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहती है। ऐसे में सरकार को कुछ ऐसे मामले चाहिए जिससे अपना चेहरा थोड़ा ठीक-ठाक कर सके ताकि जनता उन्हें पहचान सके। इसके लिए सचिन तेन्दुलकर एक अच्छा विकल्प हैं। इस चाल के साथ ही सरकार और पार्टी ने एक बड़ी साजिश रची है। देश भर में सचिन को भारत रत्न देने की मांग उठती रही है। कांग्रेस कभी नहीं चाहेगी कि सचिन को यह सम्मान मिले। साथ ही वह यह भी नहीं चाहती कि देश में कोई ऐसा चेहरा उभरे जो गांधी परिवार से बड़ा हो।
विश्वास न हो तो इतिहास के पन्ने उलट सकते हैं। आपने देखा कि किस प्रकार महानायक अमिताभ बच्चन को पहले राजनीति में लाया गया फिर बोफोर्स में फंसाया गया। भोले-भाले सचिन के साथ भी ऐसा ही छल किया जा सकता है। यहां समस्या यह है कि सदन में प्रतिदिन नए-नए मुद्दों पर बहस होते हैं। ये क्रिकेट का मैदान नहीं है कि जितना चुप रहेंगे उतना महान कहलाएंगे। यहां तो बोलना ही पड़ेगा। और जब न ही बोलने के इरादे से आएंगे तो ऐसे आने से तो अच्छा है न आना। जब आप किसी समस्या पर अपनी बात रखेंगे या किसी पार्टी के पक्ष में अपनी बात रखेंगे उसी समय सचिन अपना विरोधी गुट तैयार कर लेंगे। और शायद कांग्रेस यही चाहती भी है कि सचिन के खिलाफ बोलने वाला भी गुट तैयार हो ताकि उन्हें भारत रत्न  देने की मांग भी कमजोर पड़े और उनकी लोकप्रियता भी घटे।
सचिन के प्रशंसक इस बात से ज्यादा खफा नहीं हैं कि उनके भगवान राज्यसभा क्यों जा रहे, बल्कि उन्हें इस बात का मलाल है कि सचिन आनन-फानन में 10-जनपथ में हाजिरी क्यों लगा आए? कांग्रेस की चाल और चरित्र को समझने वाली देश की जनता समझ रही है, अगर चुक गए तो बस सचिन। अगर सरकार और कांग्रेस पार्टी सचिन का सम्मान ही करना चाहती है तो एक ही बार देश का राष्ट्रपति ही क्यूं नही बना देती है? कोई विवाद भी नहीं होता। ऐसे भी भारत में देश के राष्ट्रपति को काम ही कितना होता है! जब देश के एक सांसद को आईपीएल के बाजार में बिकते देखना अच्छा लगेगा, और सरकार के अनुसार यह देश की भावना और सचिन का सम्मान है, तो शान से सीना चौड़ा हो जाता जब राष्ट्रपति की निलामी भी आईपीएल के बाजार में होती!

जून 02, 2011

'स्टेटस सिम्बल' बन गया है धुम्रपान

एक दिन 'नो स्मोकिंग', बाकी दिन?


31 मई को पूरी दुनिया में 'वर्ल्ड नो टोबेको डे' मनाया गया. भारत के अख़बारों में सरकार के द्वारा बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाए गए, जैसे इन विज्ञापनों को देखकर लोग 2 दिन में सिगरेट पीना या तम्बाकू सेवन करना छोड़ देंगे. अजीब विडंबना है, साल के एक दिन 'नो स्मोकिंग' के लिए नसीहत, बाकी दिन टीवी. चैनलों तथा अख़बारों में तंबाकू सेवन के लिए उत्तेजक विज्ञापन. वाह...क्या बात है!

हम जिस तंबाकू की बात कर रहे हैं उससे संबंधित कुछ आंकड़ों पर विचार करते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन(W.H.O) के रिपोर्ट के अनुसार तंबाकू के कारण पूरी दुनिया में 50 लाख लोग अपनी जान गंवा देते हैं, जिसमें युवाओं संख्या सर्वाधिक है. 50 लाख लोगों में 6 लाख वे लोग हैं जो धुम्रपान नहीं करते हैं लेकिन तंबाकू के धुएं के संपर्क में आने के कारण मौत का शिकार हो रहे हैं. भारत में सार्वजनिक स्थानों पर धुम्रपान पर पाबंदी है, फिर भी कितने लोग नियन का पालन करते हैं जगजाहिर है.

सिगरेट के धुएं के छल्ले में युवा वर्ग तेजी से फंसता नज़र आ रहा है. शुरू-शुरू में दोस्तों के साथ पैदा हुआ शौक धीरे-धीरे आदत में शुमार हो जाता है. देश में 17 साल से कम उम्र के 9.6 फीसदी बच्चे धुम्रपान करते हैं. ये आंकड़े भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की तरफ से कराए गए मुंबई के इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट फॉर पोपुलेशन साइंस के सर्वे में सामने आये हैं. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के रिपोर्ट में कहा गया है कि तंबाकू 4000 तरह के खतरनाक रसायनों का मिश्रण है. जिसमें 100 से अधिक तरह के जहरीले पदार्थ, कैंसर का कारण बननेवाले 63 नशीले पदार्थ शामिल है. बीड़ी में सिगरेट के मुक़ाबले तंबाकू की मात्रा कम होती है, लेकिन यह शरीर में अधिक मात्रा में निकोटीन, बैंजो, पायरीन तथा अन्य मादक पदार्थ छोड़ती है. निकोटीन नशे का आदि बनाता है, बैंजो तथा पायरीन कैंसर का कारण बनता है. इससे साफ है कि कैंसर धुम्रपान जैसी बीमारियों को दावत देता ही है, साथ ही अपने आसपास बैठे लोगों को भी मौत के मुंह में भेज रहा है.उदहारण के तौर पर एलर्जी, दमा, साँस की बीमारी, टीबी, मृत शिशु पैदा होना, खाज-खुजली, हार्ट-अटैक. सीने में दर्द, स्ट्रोक मस्तिष्क आघात इसी की देन है.

आज धुम्रपान करीब 70 फीसदी लोग क्रोनिक पाल्मोनरी आक्सट्रकटीव बीमारी से ग्रसित हैं. कैंसर से होनेवाली 30 फीसदी मौत सिगरेट के सेवन से होती है.

'टोबेको एटलस' के रिपोर्ट के अनुसार इस साल दुनिया भर में 60 लाख लोगों को मारे जाने की संभावना है, जो तंबाकू का सेवन करते हैं. एक तरफ दुनिया मंदी की मार से उबर नहीं पा रही है तो दूसरी ओर तंबाकू से जुड़े उत्पादों पर 500 अरब डॉलर की राशी खर्च होने का अनुमान है. 'टोबेको एटलस' के तीसरे संस्करण में दुनिया भर में तंबाकू के इस्तेमाल, उसके विनियमन, कीमतों आदि के बारे में जानकारी दिया गया है. जिसमें यह भी कहा गया है कि प्रत्येक आठ सेकेण्ड में एक मौत तंबाकू के कुप्रभाव के कारण होती है.

इतने भयावह आंकड़ों के बावजूद आज के युवा वर्ग आँख मुंदकर इस ज़हर का सेवन कर रहे हैं. आधुनिकता के दौड़ में हुक्का पीना इन दिनो शहर के युवाओं का नया शगल बन गया है. रॉक-म्यूजिक और रंग-बिरंगी रोशनी में अपनी जिंदगी अंधकार की ओर ले जा रहे हैं. वे जानकर भी अनजान बनते हैं और दिखाते ऐसे हैं जैसे...! शहर की ये गंदी हवा अब गाँव की गलियों में भी पहुँच चुकी है. अब ग्रामीण इलाकों में भी कम उम्र के बच्चे अपनी ज़िन्दगी को धुंए में उड़ाते नज़र आ रहे हैं. और तो और... सरकार के इस नियम की भी धज्जियां उड़ा रहे हैं जिसमें विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के परिसर से 100 मीटर की परिधि में तंबाकू उत्पादों की बिक्री तथा सेवन पर रोक लगाने का आदेश दिया गया था. जबकि सच्चाई यह है कि कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में इन उत्पादों का बड़ा उपभोक्ता वर्ग मौजूद है. तंबाकू उत्पादों का सेवन शिक्षा संस्थानों में आज फैशन की तरह 'स्टेटस सिम्बल' बन गया है.

धुम्रपान पर रोक न लग पाने का मुख्य कारण सरकार की ढूल-मूल नीति है. एक तरफ सार्वजानिक स्थानों तथा शिक्षण संस्थानों में तंबाकू सेवन पर प्रतिबंध लगाने का दिखावा तो करती है मगर तंबाकू उत्पादन कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने की हिम्मत इस निकम्मी सरकार के पास नहीं है. कोई कदम उठाती भी है तो उसके पीछे एक बड़ा रहस्य छुपा रहता है. यह आदेश जारी किए अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं कि गुटखों की प्लास्टिक पैकेजिंग नहीं की जाएगी. प्लास्टिक की जगह कागज का इस्तेमाल किया जाएगा. इसका नतीजा यह हुआ कि एक-दो रुपए में बिकनेवाले गुटखे चार-पांच रुपए में बिकने लगे. सरकारी नियमों की आड़ में इसका लाभ सरकारी बिचौलियों सहित कंपनियों को हुआ और हो रहा है.

एक दिन के विज्ञापन के द्वारा सरकार हमें तंबाकू के सेवन से होनेवाली बीमारियों से आगाह तो करती है मगर उत्पादक कंपनियों के दवाब में सरकार सिगरेट, बीड़ी और गुटखा के पैकेट पर 'तंबाकू सेवन से मौत' की चेतावनी छापने का निर्देश लागू नहीं कर पा रही है. हमारे यहाँ पैकेट के 40 फीसदी हिस्से में 'तंबाकू सवास्थ्य के लिए हानिकारक है' चेतावनी छपी होती है, जबकि वेनेजुएला तथा पनामा में पुरे डब्बे पर तस्वीर सहित चेतावनी छपी होती है. यानि हमारी सरकार स्वास्थ्य के प्रति असंवेदनशील है और उससे कुछ भी अपेक्षा करना बेमानी है.

मेरी हैसियत इतनी तो नहीं कि मैं आपको धुम्रपान करने से मना करूँ. आप जो चाहें पीएं...मगर थोड़ा सोच कर कि आप क्या ले रहे हैं. आप सिगरेट पी रहे हैं...आप गंदी हवा पी रहे हैं...आप ज़हर पी रहे हैं! ये जानकर भी आप स्मोकिंग करते हैं तो आपका मालिक उपरवाला ही है.

मई 30, 2011

... कि पब्लिक सब जानती है!

तीन दिन, छह विधानसभा क्षेत्र और तीस गाँव
एक टीवी न्यूज़ चैनल के तरफ से एक रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए उत्तर प्रदेश के गाँव घुमने का मौका मिला. मैंने तीन दिन में छह विधानसभा क्षेत्र के तीस गावों का दौरा किया. जिसमें बुलंदशहर, बरौली, अलीगढ़, खुर्जा तथा कोल विधानसभा शामिल है. मैं वहां के अनुभवों को आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ.

मैंने पाया कि राहुल गाँधी चाहे जितनी भी नौटंकी कर लें, आम पब्लिक सच्चाई जानती है. भट्टा-पारसौल गाँव में राहुल गाँधी के धरना को लोग मात्र दिखावा मानते हैं. आधी आबादी को तो ये भी पता नहीं है कि भट्टा-परसौल में हुआ क्या था? जिन्हें पता है उनमें से काफी लोग इस घटना के लिए राज्य की मायावती सरकार से ज्यादा केंद्र सरकार को दोषी मानते है. क्यूंकि भूमि अधिग्रहण बिल केंद्र सरकार के अधीन ही आता है. कई गाँव में मायावती के खिलाफ़ आक्रोश है. मगर आगामी विधानसभा चुनाव में वोट देने की बात पर वे बहुजन समाज पार्टी को ही अपना मत देने की बात करते हैं, खासकर जाटव जाति बहुल इलाको में.

सवर्ण बहुल गावों में मायावती सरकार से लोग जबरदस्त गुस्सा में हैं ये बात बिलकुल सही है. मगर वे स्वीकार करने से नहीं हिचकते कि मायावती के राज में उत्तरप्रदेश में विकास के काम हुए हैं. कानून का राज स्थापित हुआ है, स्वास्थ तथा शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुधार हुए हैं. उन्हें दलितों के लिए अलग से चलाये जा रहे योजनाओं से आपत्ति है. सवर्ण जाति के लोग खासकर ब्राम्हण बसपा के खिलाफ तो हैं मगर वे भाजपा तथा कांग्रेस समर्थक खेमों में बंटे हुए हैं.

भट्टा-पारसौल घटना के बाद सबसे ज़्यादा नुकसान समाजवादी पार्टी तथा भारतीय जनता पार्टी का हुआ है. कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभर रही है. मुस्लिम मतदाता बसपा और कांग्रेस खेमों में बंटे हुए हैं.

एक बात और जो बाहर निकलकर आई कि प्रदेश में शिक्षा और बेरोजगारी की हालत बहुत ख़राब है. खासकर ग्रामीण महिलाएं अशिक्षा की अभिशाप झेलने को मजबूर हैं.

बुलंदशहर के गंगेरा(मुस्लिम बहुल)गाँव में छठी से आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने मुझे घेर लिया और कहा कि जूनियर हाई स्कूल,गंगेरा में परीक्षा के लिए उन्हें कॉपियां नहीं दी जाती है. एक रूपये की दर से बाहर से खरीदनी पड़ती है. बच्चों से झाड़ू लगवाया जाता है. उनकी भोली नज़रें मीडिया की ओर से गयी टीम को अपेक्षा की नज़र से देख रही थी. शिक्षा का अधिकार का हनन कैसे होता है, अगर आप देखना चाहते हैं तो बुलंदशहर के गंगेरा गाँव जाकर देख सकते हैं.

भट्टा-पारसौल कांड के बाद टीवी चैनलों पर जिस प्रकार ख़बरें परोसी गई उससे लगता है कि मायावती का सिंहासन डोलने वाला है. मगर ज़मीनी हक़ीकत बताता है कि लखनऊ की कुर्सी फ़िलहाल मायावती को छोड़ने को तैयार नहीं है.

अप्रैल 13, 2011

अन्ना को अन्ना हज़ारे ही रहने दीजिये, गाँधी मत बनाईये...


'मुझे मालूम नहीं था कि इतने लोग आयेंगे, मैं तो सिर्फ अपना काम कर रहा था.' ये कहना है अन्ना हजारे का. उन्होंने 9-अप्रैल को आमरण-अनशन समाप्त करते वक्त लोगों को संबोधित करते हुए कहा. इस प्रकार पांच दिन से चला आ रहा भ्रस्ताचार विरोधी आन्दोलन समाप्त हो गया. जन-लोकपाल विधेयक के मुद्दे पर गठित मसौदा समिति में सरकार व सिविल सोसायटी के पांच-पांच लोग होंगे. इसी फैसले के साथ अन्ना के हजारों कार्यकर्ता हज़ारे की जय-जयकार करने लगे. खुशियाँ मनाई जाने लगी. वन्दे-मातरम से आसमां गूंजने लगा. इसे दूसरी आज़ादी तक कहा गया. अन्ना को दूसरा गाँधी के रूप में प्रोजेक्ट किया गया.


इस मुद्दे को टीआरपी के लिये भूखा मीडिया ने इस प्रकार भुनाने की कोशिश की कि जैसे अन्ना के समर्थन में पूरा देश जंतर-मंतर पर उतर आया हो! जैसे अन्ना हज़ारे कोई जादू की छड़ी हैं कि उनके फूंक मारते ही भ्रस्टाचार छू-मंतर हो जायेगा. ऐसी ही कुछ बातें मेरे गले के नीचे नहीं उतर रही है जिसकी मैं चर्चा करना चाहूँगा.


मीडिया के द्वारा आंदोलन की भीड़ को पहले दिन 2 हज़ार, दूसरे दिन 3 -हज़ार' तीसरे दिन 20-हज़ार, चौथे दिन 45-हज़ार तथा पांचवें व अंतिम दिन 50- हज़ार बताया गया. अंतिम दिन जिस समय अनशन तोड़ा जा रहा था उस समय मैं वहां था पर मेरी बातों पर आप विश्वास मत कीजिये. सिर्फ सच्चाई की कल्पना कीजिये. अगर 50 हज़ार लोग जंतर-मंतर पर इकट्ठे हो जाते तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली की रफ़्तार रुक जाती. याद कीजिये, पिछले साल जब गन्ना किसानों का आंदोलन दिल्ली में हुआ था तब किस प्रकार दिल्ली ठहर गयी थी और मीडिया ने किस प्रकार नकारात्मक रूप से उस आंदोलन को दिखाया था. खैर छोडिये इस पुराने मुद्दे को. बीबीसी के अनुसार अन्ना हज़ारे के इस आंदोलन में लोगों की संख्या 20 हज़ार थी. तो फिर घरेलू मीडिया संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बात को बतंगड़ क्यूँ बनाया?

सैकड़ों कैमरे लगाये मीडिया वाले अगर एक घंटे के लिए भी वहां से हट जाते और वहां एक हज़ार लोग भी रुक जाते तो मैं इसे एक आंदोलन मान लेता. मैंने देखा कि मंच के आसपास बैठे लोग जो दिल्ली के बाहर से आये थे, वे लोग ही भाषण सुन रहे थे. बाकि लोग टीवी पर दिखने के लिए नाच-गा रहे थे या हवन-भजन-कीर्तन कर रहे थे.


उपस्थित भीड़ जिसे लोग जन-सैलाब कह रहे हैं, उसकी एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि इस सैलाब में ज़्यादातर लोग उच्च-मध्यवर्गीय तथा उच्च वर्गीय परिवार से थे. भारत में 70 फीसदी लोग किसान हैं तथा लगभग इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. अब जरा सोचिये... एक अरब इक्कीस करोड़ के इस देश में मात्र 50 हज़ार लोग, अन्य शहरों को मिला दें तो 1 लाख लोग इस मुहिम में शामिल हुए, जिसमे किसानों की संख्या नगण्य है. और इसे आप भारत की जनता का आंदोलन कह रहे हैं? क्या ये कहना लोकतंत्र का अपमान नहीं होगा?

अभी आईपीएल का दौर चल रहा है. एक मैच में 30 से 50 हज़ार दर्शक होते हैं. इतने लोग तो अन्ना हज़ारे के साथ भी एकत्रित नहीं हुए और आप इसे आंदोलन कह रहे हैं!


पता नहीं क्यूँ, कुछ सिरफिरे लोग अन्ना हज़ारे की तुलना महात्मा गाँधी से कर रहे हैं. जो लोग ऐसा कर रहे हैं उनसे मेरा सवाल है कि क्या गाँधी ने किसी भी आंदोलन की शुरुआत दिल्ली, कोलकाता, मुंबई या चेन्नई जैसे महानगरों से की थी? नहीं न! उन्होंने आंदोलन की शुरुआत चंपारण जैसे गाँव से की थी, दांडी यात्रा की शुरुआत गुजरात के दांडी गाँव से की थी. क्यूंकि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. जो लोग इस सफलता पर थिरक रहे हैं उन्हें 1977 के आंदोलन को भी याद करना चाहिए. तब न तो फेसबुक था, न ट्विटर और न ही इंटरनेट. इसके बावजूद जयप्रकाश की आंधी में इंदिरा गाँधी समेत पूरी कांग्रेस उड़ गयी थी. आज महीनों पहले से ट्विटर तथा फेसबुक के द्वारा प्रचार किया गया फिर भी भीड़ मात्र 50 हज़ार! ये सफलता है या...? इसीलिए अन्ना को अन्ना हज़ारे ही रहने दीजिये, गाँधी मत बनाईये. गाँधी एक ही था. देश में कोई दूसरा गाँधी पैदा नहीं हुआ है.


जिस प्रकार केंद्र सरकार आनन्-फानन में बिना कोई कैबिनेट की मीटिंग या सर्व-दलीय बैठक बुलाये मांगें स्वीकार कर ली वह भी संदेह से परे नहीं है. आज 50 हज़ार लोगों के प्रतिनिधियों को मसौदा समिति में रखा गया है. कल अगर 5 लाख लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर आयें और अपना भागीदारी मांगें और बोलें कि असली आंदोलनकारी हम हैं तो मनमोहन सरकार क्या करेगी? आप सोचिये!


अन्ना हज़ारे ने ए. राजा पर '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाला' का हवाला देकर कई आरोप लगाये. मगर ए. राजा को निर्दोष तथा '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाले' को नकारने वाले कपिल सिब्बल मसौदा समिति में हैं. यहाँ अन्ना ने सिब्बल को कैसे बर्दाश्त कर लिया और क्यूँ? साथ ही शांति भूषण एवं प्रशांत भूषण (बाप-बेटे) तथा खुद अन्ना हज़ारे को कमिटि में रहना लोगों के दिमाग में सवाल पैदा कर रहा है. क्या गाँधी या जेपी ने ऐसा किया था? क्या पूरे देश में केवल दो ही काबिल संविधानविद हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार और सिविल सोसायटी के बीच परदे के पीछे कोई खिचड़ी पक रही हो जिसकी भनक आम जनता को नहीं है!


'

अप्रैल 06, 2011

कितना सफल होगा मनमोहनी प्रयास?

रंजीत रंजन
भारत जब मोटेरा में आस्ट्रेलिया को हराकर सेमीफाइनल में पहुँच गया और ये साफ हो गया कि अगला मुकाबला चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान से होगा तब पूरी दुनिया की नज़र इस मुकाबले पर टिक गई. भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट प्रेमी इस मैच का इंतजार करने लगे. मीडिया 24 में से 14 घंटे क्रिकेट पर खर्च करने लगा. मौके को भांपकर प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह ने क्रिकेट की पिच से कूटनीतिक गुगली फेंक दी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी को मैच देखने के लिए आमंत्रित कर लिया.
याद कीजिये वो दृश्य जब खेल शुरू होने के पहले दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने मैदान पर दोनों टीमों के खिलाडियों से मिले. खुशनुमा माहौल में खेल समाप्त हुआ. दोनों प्रधानमंत्रियों के साथ-साथ दोनों देशों के लोग मैच का आनंद उठाये और बेहतर संबंधों के लिए दुआएं की. मगर सवाल यह है कि क्रिकेट के पिच से संबंधों को सुधारने का मनमोहनी प्रयास कितना सफल होगा?
प्रयास अच्छा है, लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज कड़वी यादें और अनुभव आशंका पैदा करने के लिए काफी हैं. इससे पहले भी कई बार क्रिकेट कूटनीतिक प्रयास का हिस्सा बन चुका है. 1987 के विश्व कप के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल ज़िया उल हक जयपुर आये थे. 2004 में भारतीय टीम पाकिस्तान दौरे पर थी तब राहुल गाँधी समेत कई कांग्रेसी नेताओं ने पाकिस्तान जाकर मैच देखा था. तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने महेंद्र सिंह धोनी की ज़ुल्फों की तारीफ़ की थी. लेकिन इससे क्या भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध सुधर गए?
बेशक नहीं! अब भी शायद ऐसा न हो. खेलों से यह उम्मीद करना भी नहीं चाहिए. खेल खेल है और खेल को खेल ही रहने देना चाहिए.
खेल के अलावा भी भारत ने कई बार पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने का प्रयास किया है. 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए थे. बदले में हमें क्या मिला- कारगिल युद्ध! इसके बावजूद हमने मुशर्रफ को आगरा बुलाया. इससे क्या मिला- कुछ नहीं! हम खुद संबंधों को तोड़ते भी हैं और फिर संबंधों को जोड़ने का प्रयास भी करते हैं. संसद पर हमले के बाद हमने पाकिस्तान से सभी प्रकार के सम्बन्ध तोड़ लिए थे. उसके बाद सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किसने किया- भारत ने! 26 /11 के बाद हमने फिर सारे सम्बन्ध तोड़ लिए. यह कहकर कि पाकिस्तान जब तक सीमा पार से आतंकवाद तथा घुसपैठ बंद नहीं करेगा तब तक उसके साथ कोई बातचीत नहीं होगी. मगर बातचीत का पहल किसने किया- भारत ने! क्या सीमा पर से आतंकवाद ख़त्म हो गए या घुसपैठ? प्रधानमंत्री को इस सवाल का जवाब देना चाहिए!
जहाँ तक मेरा विचार है विभिन्न प्रकार के घोटालों से घिरे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मोहाली मैच के बहाने लोगों का ध्यान घोटालों से भटकना चाहते थे जिसमे वे सफल भी हुए हैं. इस काम में मीडिया भी उनका क्या साथ निभाया है. और ये बात डा० सिंह को पता था कि मीडिया को क्रिकेटीय रोग लगा हुआ है, समाचार चैनलों से भ्रस्टाचार लगभग गायब है, ऐसे में इस पहल के द्वारा एक तीर से दो निशाना साधा जा सकता है. एक- लोग भ्रस्टाचार के मुद्दे से भटक जायेंगे और दूसरा अमेरिका दादा भी खुश हो जायेगा.
शर्म-अल-शेख तथा थिम्पू में भी दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच मुलाकात व बातचीत हो चुकी है. इसके बाद विदेश सचिवों के बीच कई दौर की बातचीत हुई है. लेकिन बातचीत किन-किन मुद्दों पर हुई है, तथा कहाँ तक पहुंची है अब तक ख़बरें मीडिया में नहीं आई है. शायद भारत सरकार यहाँ भी विकीलीक्स के खुलासे का इंतज़ार कर रही है. भले ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कहा है कि मनमोहन सिंह ने क्रिकेट देखने का निमंत्रण देकर विशाल ह्रदय का परिचय दिया है. वे शांति और सम्पन्नता के लिए कम करना चाहते हैं. लेकिन दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में शासन इस्लामाबाद का नहीं रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय का चलता है. ऐसे में गिलानी को बुलाकर सम्बन्ध सुधारने का पहल बेमानी है. और इस गन्दी राजनीति के बीच में बार-बार क्रिकेट को न लाया जाए तो ज्यादा बेहतर है . क्यूंकि राजनीति का असर खेलों पर पड़ता है लेकिन खेलों का असर राजनीति पर पड़ जाए ऐसा नहीं है. भारत और पाकिस्तान के बीच कई संवेदनशील मुद्दे हैं सुलझाने के लिए जिसे खेल-खेल में तो कतई नहीं सुलझाये जा सकते. और न ही यह एक दिवसीय क्रिकेट कि तरह है कि परिणाम एक दिन में आ जाए.