जून 10, 2012

फिर भी डिम्पल निर्विरोध!


बड़े ही सीधे तरीके से डिम्पल यादव कन्नौज लोकसभा सीट से निर्विरोध सांसद चुन ली गई। हालांकि उत्तरप्रदेश में इससे पहले भी ऐसा दो बार हुआ है। 1952 में इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव में पी.सी. टण्डन और 1962 के चुनाव में टिहरी लोकसभा सीट से महाराजा मानवेन्द्र शाह निर्विरोध चुने गए थे। डिम्पल ने उ.प्र. में तीसरी तथा देश में 44 वीं निर्विरोध जीत दर्ज की हैं। चुनाव आयोग के अनुसार 1952 के लोकसभा चुनाव में 10 तथा 1957 के लोकसभा चुनाव में 11 सांसद निर्विरोध जीतकर संसद पहुंचे थे। लेकिन तब और अब की राजनीतिक और समाजिक परिस्थितियों में आसमान जमीन का अंतर है। तब कांग्रेस आजादी की लहर पर उपजी फसल काट रही थी। विपक्ष का अस्तित्व न के बराबर था। आज कांग्रेस, भाजपा, बसपा के अलावा दर्जनों क्षेत्रीय पार्टियां, फिर भी डिम्पल निर्विरोध!

 पिछले विधानसभा चुनाव के सम्पन्न हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां गला फाड़-फाड़कर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रही थी। अचानक से ऐसा क्या हो गया कि इतनी बड़ी राजनीतिक परिपक्वता दिखाई देने लगी कि डिम्पल के खिलाफ किसी भी पार्टी के द्वारा एक उम्मीदवार तक नहीं उतारा गया? इस सवाल के जवाब ढूंढने में जो तथ्य सामने आते हैं वे बड़े मजेदार है, दिलचस्प भी हैं मगर बड़े गंभीर हैं।

कांग्रेस ने तो शुरू से ही कन्नौज में दिलचस्पी नहीं ली। क्यूंकि  उसकी नजर कन्नौज से ज़्यादा राष्ट्रपति भवन पर है, और अपने किसी कठपुतली को राष्ट्रपति भवन भेजने के लिए उसे समाजवादी पार्टी का समर्थन की ज़रूरत होगी। ऐसे समय में कांगे्रस मुलायम परिवार को नाराज करना नहीं चाहती थी। साथ ही ममता की बैशाखी पर टिकी मनमोहन सरकार को आपातकाल के लिए ममता का विकल्प चाहिए, जिसके लिए मुलायम का नाम सटीक बैठता है,  और मुलायम को भी केन्द्र में मंत्री बनने की बेचैनी रहती ही है। इससे साइकिल और हाथ का रिश्ता तो समझ में आता है, मगर बसपा को क्या हो गया, ये समझने की ज़रूरत है। कहने को तो कहा जा सकता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में जनता की मार से बद्हवाश पड़ी बसपा में हिम्मत ही नहीं थी कि सपा से टकराए। सीधे-सीधे तो ये चल सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं। जानकारों के अनुसार मायावती घोटालों से बचने के लिए मुख्यमंत्री की पत्नी के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं की।

अब बात भाजपा की। पहले उत्तरप्रदेश भाजपा चुनाव लड़ने से ही इनकार करती है। फिर आनन-फानन में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी चुनाव लड़ने की घोषणा करते हैं। उम्मीदवार जगदेव यादव समय पर नामांकन करने नहीं पहुंच पाए और चुनाव लड़ने से वंचित रह गए। चाल और चरित्र की बात करने वाली पार्टी की चाल इतनी धीमी थी कि उसके उम्मीदवार समय की कमी के कारण नामांकण दाखिल नहीं कर पाए, आप समझ सकते हैं भाजपा कितनी जिम्मेदार पार्टी है!जो दो लोग नामांकन दाखिल कर पाए थे वे हैं संयुक्त समाजवादी दल के दशरथ शंखवार और निर्दलीय प्रत्याशी संजीव कुमार। इन्होंने भी अपने नाम वापस ले लिए। कहा जा रहा है कि ये सपा के ही डमी उम्मीदवार थे। 

अमुमन कहा जाता है कि सपा गुंडों की पार्टी है। अपराधियों को संरक्षण देती है। तो क्या डिम्पल को निर्विरोध दिल्ली भेजने वाली घटना से मान लिया जाए कि सत्ताधारी पार्टी से सभी लोग सचमुच इतने घबरा गए हैं कि कोई खड़ा होने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाया? क्या राज्य में अपराधियों का बोलबाला होने के आरोप पर एक मुहर है डिम्पल को निर्विराध चुना जाना? या फिर इस खेल में ऐसा भी कोई खेल खेला गया जो आम लोगों की समझ से बाहर हो। क्यूंकि  यहां एक सवाल ये भी है कि 2009 मे आगरा से लोकसभा चुनाव हारनेवाले राजबब्बर ने डिम्पल यादव को अखिलेश सिंह के द्वारा खाली की गई फरोजाबाद सीट के उपचुनाव में एक लाख से ज्यादा वोटों से हराया था। इस बार फिर कन्नौज सीट अखिलेश सिंह के द्वारा ही खाली की गई है, प्रत्याशी भी वही हैं, बस परिणाम अप्रत्याशित है।