अप्रैल 13, 2011

अन्ना को अन्ना हज़ारे ही रहने दीजिये, गाँधी मत बनाईये...


'मुझे मालूम नहीं था कि इतने लोग आयेंगे, मैं तो सिर्फ अपना काम कर रहा था.' ये कहना है अन्ना हजारे का. उन्होंने 9-अप्रैल को आमरण-अनशन समाप्त करते वक्त लोगों को संबोधित करते हुए कहा. इस प्रकार पांच दिन से चला आ रहा भ्रस्ताचार विरोधी आन्दोलन समाप्त हो गया. जन-लोकपाल विधेयक के मुद्दे पर गठित मसौदा समिति में सरकार व सिविल सोसायटी के पांच-पांच लोग होंगे. इसी फैसले के साथ अन्ना के हजारों कार्यकर्ता हज़ारे की जय-जयकार करने लगे. खुशियाँ मनाई जाने लगी. वन्दे-मातरम से आसमां गूंजने लगा. इसे दूसरी आज़ादी तक कहा गया. अन्ना को दूसरा गाँधी के रूप में प्रोजेक्ट किया गया.


इस मुद्दे को टीआरपी के लिये भूखा मीडिया ने इस प्रकार भुनाने की कोशिश की कि जैसे अन्ना के समर्थन में पूरा देश जंतर-मंतर पर उतर आया हो! जैसे अन्ना हज़ारे कोई जादू की छड़ी हैं कि उनके फूंक मारते ही भ्रस्टाचार छू-मंतर हो जायेगा. ऐसी ही कुछ बातें मेरे गले के नीचे नहीं उतर रही है जिसकी मैं चर्चा करना चाहूँगा.


मीडिया के द्वारा आंदोलन की भीड़ को पहले दिन 2 हज़ार, दूसरे दिन 3 -हज़ार' तीसरे दिन 20-हज़ार, चौथे दिन 45-हज़ार तथा पांचवें व अंतिम दिन 50- हज़ार बताया गया. अंतिम दिन जिस समय अनशन तोड़ा जा रहा था उस समय मैं वहां था पर मेरी बातों पर आप विश्वास मत कीजिये. सिर्फ सच्चाई की कल्पना कीजिये. अगर 50 हज़ार लोग जंतर-मंतर पर इकट्ठे हो जाते तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली की रफ़्तार रुक जाती. याद कीजिये, पिछले साल जब गन्ना किसानों का आंदोलन दिल्ली में हुआ था तब किस प्रकार दिल्ली ठहर गयी थी और मीडिया ने किस प्रकार नकारात्मक रूप से उस आंदोलन को दिखाया था. खैर छोडिये इस पुराने मुद्दे को. बीबीसी के अनुसार अन्ना हज़ारे के इस आंदोलन में लोगों की संख्या 20 हज़ार थी. तो फिर घरेलू मीडिया संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बात को बतंगड़ क्यूँ बनाया?

सैकड़ों कैमरे लगाये मीडिया वाले अगर एक घंटे के लिए भी वहां से हट जाते और वहां एक हज़ार लोग भी रुक जाते तो मैं इसे एक आंदोलन मान लेता. मैंने देखा कि मंच के आसपास बैठे लोग जो दिल्ली के बाहर से आये थे, वे लोग ही भाषण सुन रहे थे. बाकि लोग टीवी पर दिखने के लिए नाच-गा रहे थे या हवन-भजन-कीर्तन कर रहे थे.


उपस्थित भीड़ जिसे लोग जन-सैलाब कह रहे हैं, उसकी एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि इस सैलाब में ज़्यादातर लोग उच्च-मध्यवर्गीय तथा उच्च वर्गीय परिवार से थे. भारत में 70 फीसदी लोग किसान हैं तथा लगभग इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. अब जरा सोचिये... एक अरब इक्कीस करोड़ के इस देश में मात्र 50 हज़ार लोग, अन्य शहरों को मिला दें तो 1 लाख लोग इस मुहिम में शामिल हुए, जिसमे किसानों की संख्या नगण्य है. और इसे आप भारत की जनता का आंदोलन कह रहे हैं? क्या ये कहना लोकतंत्र का अपमान नहीं होगा?

अभी आईपीएल का दौर चल रहा है. एक मैच में 30 से 50 हज़ार दर्शक होते हैं. इतने लोग तो अन्ना हज़ारे के साथ भी एकत्रित नहीं हुए और आप इसे आंदोलन कह रहे हैं!


पता नहीं क्यूँ, कुछ सिरफिरे लोग अन्ना हज़ारे की तुलना महात्मा गाँधी से कर रहे हैं. जो लोग ऐसा कर रहे हैं उनसे मेरा सवाल है कि क्या गाँधी ने किसी भी आंदोलन की शुरुआत दिल्ली, कोलकाता, मुंबई या चेन्नई जैसे महानगरों से की थी? नहीं न! उन्होंने आंदोलन की शुरुआत चंपारण जैसे गाँव से की थी, दांडी यात्रा की शुरुआत गुजरात के दांडी गाँव से की थी. क्यूंकि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. जो लोग इस सफलता पर थिरक रहे हैं उन्हें 1977 के आंदोलन को भी याद करना चाहिए. तब न तो फेसबुक था, न ट्विटर और न ही इंटरनेट. इसके बावजूद जयप्रकाश की आंधी में इंदिरा गाँधी समेत पूरी कांग्रेस उड़ गयी थी. आज महीनों पहले से ट्विटर तथा फेसबुक के द्वारा प्रचार किया गया फिर भी भीड़ मात्र 50 हज़ार! ये सफलता है या...? इसीलिए अन्ना को अन्ना हज़ारे ही रहने दीजिये, गाँधी मत बनाईये. गाँधी एक ही था. देश में कोई दूसरा गाँधी पैदा नहीं हुआ है.


जिस प्रकार केंद्र सरकार आनन्-फानन में बिना कोई कैबिनेट की मीटिंग या सर्व-दलीय बैठक बुलाये मांगें स्वीकार कर ली वह भी संदेह से परे नहीं है. आज 50 हज़ार लोगों के प्रतिनिधियों को मसौदा समिति में रखा गया है. कल अगर 5 लाख लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर आयें और अपना भागीदारी मांगें और बोलें कि असली आंदोलनकारी हम हैं तो मनमोहन सरकार क्या करेगी? आप सोचिये!


अन्ना हज़ारे ने ए. राजा पर '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाला' का हवाला देकर कई आरोप लगाये. मगर ए. राजा को निर्दोष तथा '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाले' को नकारने वाले कपिल सिब्बल मसौदा समिति में हैं. यहाँ अन्ना ने सिब्बल को कैसे बर्दाश्त कर लिया और क्यूँ? साथ ही शांति भूषण एवं प्रशांत भूषण (बाप-बेटे) तथा खुद अन्ना हज़ारे को कमिटि में रहना लोगों के दिमाग में सवाल पैदा कर रहा है. क्या गाँधी या जेपी ने ऐसा किया था? क्या पूरे देश में केवल दो ही काबिल संविधानविद हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार और सिविल सोसायटी के बीच परदे के पीछे कोई खिचड़ी पक रही हो जिसकी भनक आम जनता को नहीं है!


'

अप्रैल 06, 2011

कितना सफल होगा मनमोहनी प्रयास?

रंजीत रंजन
भारत जब मोटेरा में आस्ट्रेलिया को हराकर सेमीफाइनल में पहुँच गया और ये साफ हो गया कि अगला मुकाबला चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान से होगा तब पूरी दुनिया की नज़र इस मुकाबले पर टिक गई. भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट प्रेमी इस मैच का इंतजार करने लगे. मीडिया 24 में से 14 घंटे क्रिकेट पर खर्च करने लगा. मौके को भांपकर प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह ने क्रिकेट की पिच से कूटनीतिक गुगली फेंक दी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी को मैच देखने के लिए आमंत्रित कर लिया.
याद कीजिये वो दृश्य जब खेल शुरू होने के पहले दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने मैदान पर दोनों टीमों के खिलाडियों से मिले. खुशनुमा माहौल में खेल समाप्त हुआ. दोनों प्रधानमंत्रियों के साथ-साथ दोनों देशों के लोग मैच का आनंद उठाये और बेहतर संबंधों के लिए दुआएं की. मगर सवाल यह है कि क्रिकेट के पिच से संबंधों को सुधारने का मनमोहनी प्रयास कितना सफल होगा?
प्रयास अच्छा है, लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज कड़वी यादें और अनुभव आशंका पैदा करने के लिए काफी हैं. इससे पहले भी कई बार क्रिकेट कूटनीतिक प्रयास का हिस्सा बन चुका है. 1987 के विश्व कप के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल ज़िया उल हक जयपुर आये थे. 2004 में भारतीय टीम पाकिस्तान दौरे पर थी तब राहुल गाँधी समेत कई कांग्रेसी नेताओं ने पाकिस्तान जाकर मैच देखा था. तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने महेंद्र सिंह धोनी की ज़ुल्फों की तारीफ़ की थी. लेकिन इससे क्या भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध सुधर गए?
बेशक नहीं! अब भी शायद ऐसा न हो. खेलों से यह उम्मीद करना भी नहीं चाहिए. खेल खेल है और खेल को खेल ही रहने देना चाहिए.
खेल के अलावा भी भारत ने कई बार पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने का प्रयास किया है. 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए थे. बदले में हमें क्या मिला- कारगिल युद्ध! इसके बावजूद हमने मुशर्रफ को आगरा बुलाया. इससे क्या मिला- कुछ नहीं! हम खुद संबंधों को तोड़ते भी हैं और फिर संबंधों को जोड़ने का प्रयास भी करते हैं. संसद पर हमले के बाद हमने पाकिस्तान से सभी प्रकार के सम्बन्ध तोड़ लिए थे. उसके बाद सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किसने किया- भारत ने! 26 /11 के बाद हमने फिर सारे सम्बन्ध तोड़ लिए. यह कहकर कि पाकिस्तान जब तक सीमा पार से आतंकवाद तथा घुसपैठ बंद नहीं करेगा तब तक उसके साथ कोई बातचीत नहीं होगी. मगर बातचीत का पहल किसने किया- भारत ने! क्या सीमा पर से आतंकवाद ख़त्म हो गए या घुसपैठ? प्रधानमंत्री को इस सवाल का जवाब देना चाहिए!
जहाँ तक मेरा विचार है विभिन्न प्रकार के घोटालों से घिरे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मोहाली मैच के बहाने लोगों का ध्यान घोटालों से भटकना चाहते थे जिसमे वे सफल भी हुए हैं. इस काम में मीडिया भी उनका क्या साथ निभाया है. और ये बात डा० सिंह को पता था कि मीडिया को क्रिकेटीय रोग लगा हुआ है, समाचार चैनलों से भ्रस्टाचार लगभग गायब है, ऐसे में इस पहल के द्वारा एक तीर से दो निशाना साधा जा सकता है. एक- लोग भ्रस्टाचार के मुद्दे से भटक जायेंगे और दूसरा अमेरिका दादा भी खुश हो जायेगा.
शर्म-अल-शेख तथा थिम्पू में भी दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच मुलाकात व बातचीत हो चुकी है. इसके बाद विदेश सचिवों के बीच कई दौर की बातचीत हुई है. लेकिन बातचीत किन-किन मुद्दों पर हुई है, तथा कहाँ तक पहुंची है अब तक ख़बरें मीडिया में नहीं आई है. शायद भारत सरकार यहाँ भी विकीलीक्स के खुलासे का इंतज़ार कर रही है. भले ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कहा है कि मनमोहन सिंह ने क्रिकेट देखने का निमंत्रण देकर विशाल ह्रदय का परिचय दिया है. वे शांति और सम्पन्नता के लिए कम करना चाहते हैं. लेकिन दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में शासन इस्लामाबाद का नहीं रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय का चलता है. ऐसे में गिलानी को बुलाकर सम्बन्ध सुधारने का पहल बेमानी है. और इस गन्दी राजनीति के बीच में बार-बार क्रिकेट को न लाया जाए तो ज्यादा बेहतर है . क्यूंकि राजनीति का असर खेलों पर पड़ता है लेकिन खेलों का असर राजनीति पर पड़ जाए ऐसा नहीं है. भारत और पाकिस्तान के बीच कई संवेदनशील मुद्दे हैं सुलझाने के लिए जिसे खेल-खेल में तो कतई नहीं सुलझाये जा सकते. और न ही यह एक दिवसीय क्रिकेट कि तरह है कि परिणाम एक दिन में आ जाए.