'मुझे मालूम नहीं था कि इतने लोग आयेंगे, मैं तो सिर्फ अपना काम कर रहा था.' ये कहना है अन्ना हजारे का. उन्होंने 9-अप्रैल को आमरण-अनशन समाप्त करते वक्त लोगों को संबोधित करते हुए कहा. इस प्रकार पांच दिन से चला आ रहा भ्रस्ताचार विरोधी आन्दोलन समाप्त हो गया. जन-लोकपाल विधेयक के मुद्दे पर गठित मसौदा समिति में सरकार व सिविल सोसायटी के पांच-पांच लोग होंगे. इसी फैसले के साथ अन्ना के हजारों कार्यकर्ता हज़ारे की जय-जयकार करने लगे. खुशियाँ मनाई जाने लगी. वन्दे-मातरम से आसमां गूंजने लगा. इसे दूसरी आज़ादी तक कहा गया. अन्ना को दूसरा गाँधी के रूप में प्रोजेक्ट किया गया.
इस मुद्दे को टीआरपी के लिये भूखा मीडिया ने इस प्रकार भुनाने की कोशिश की कि जैसे अन्ना के समर्थन में पूरा देश जंतर-मंतर पर उतर आया हो! जैसे अन्ना हज़ारे कोई जादू की छड़ी हैं कि उनके फूंक मारते ही भ्रस्टाचार छू-मंतर हो जायेगा. ऐसी ही कुछ बातें मेरे गले के नीचे नहीं उतर रही है जिसकी मैं चर्चा करना चाहूँगा.
मीडिया के द्वारा आंदोलन की भीड़ को पहले दिन 2 हज़ार, दूसरे दिन 3 -हज़ार' तीसरे दिन 20-हज़ार, चौथे दिन 45-हज़ार तथा पांचवें व अंतिम दिन 50- हज़ार बताया गया. अंतिम दिन जिस समय अनशन तोड़ा जा रहा था उस समय मैं वहां था पर मेरी बातों पर आप विश्वास मत कीजिये. सिर्फ सच्चाई की कल्पना कीजिये. अगर 50 हज़ार लोग जंतर-मंतर पर इकट्ठे हो जाते तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली की रफ़्तार रुक जाती. याद कीजिये, पिछले साल जब गन्ना किसानों का आंदोलन दिल्ली में हुआ था तब किस प्रकार दिल्ली ठहर गयी थी और मीडिया ने किस प्रकार नकारात्मक रूप से उस आंदोलन को दिखाया था. खैर छोडिये इस पुराने मुद्दे को. बीबीसी के अनुसार अन्ना हज़ारे के इस आंदोलन में लोगों की संख्या 20 हज़ार थी. तो फिर घरेलू मीडिया संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बात को बतंगड़ क्यूँ बनाया?
सैकड़ों कैमरे लगाये मीडिया वाले अगर एक घंटे के लिए भी वहां से हट जाते और वहां एक हज़ार लोग भी रुक जाते तो मैं इसे एक आंदोलन मान लेता. मैंने देखा कि मंच के आसपास बैठे लोग जो दिल्ली के बाहर से आये थे, वे लोग ही भाषण सुन रहे थे. बाकि लोग टीवी पर दिखने के लिए नाच-गा रहे थे या हवन-भजन-कीर्तन कर रहे थे.
उपस्थित भीड़ जिसे लोग जन-सैलाब कह रहे हैं, उसकी एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि इस सैलाब में ज़्यादातर लोग उच्च-मध्यवर्गीय तथा उच्च वर्गीय परिवार से थे. भारत में 70 फीसदी लोग किसान हैं तथा लगभग इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. अब जरा सोचिये... एक अरब इक्कीस करोड़ के इस देश में मात्र 50 हज़ार लोग, अन्य शहरों को मिला दें तो 1 लाख लोग इस मुहिम में शामिल हुए, जिसमे किसानों की संख्या नगण्य है. और इसे आप भारत की जनता का आंदोलन कह रहे हैं? क्या ये कहना लोकतंत्र का अपमान नहीं होगा?
अभी आईपीएल का दौर चल रहा है. एक मैच में 30 से 50 हज़ार दर्शक होते हैं. इतने लोग तो अन्ना हज़ारे के साथ भी एकत्रित नहीं हुए और आप इसे आंदोलन कह रहे हैं!
पता नहीं क्यूँ, कुछ सिरफिरे लोग अन्ना हज़ारे की तुलना महात्मा गाँधी से कर रहे हैं. जो लोग ऐसा कर रहे हैं उनसे मेरा सवाल है कि क्या गाँधी ने किसी भी आंदोलन की शुरुआत दिल्ली, कोलकाता, मुंबई या चेन्नई जैसे महानगरों से की थी? नहीं न! उन्होंने आंदोलन की शुरुआत चंपारण जैसे गाँव से की थी, दांडी यात्रा की शुरुआत गुजरात के दांडी गाँव से की थी. क्यूंकि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. जो लोग इस सफलता पर थिरक रहे हैं उन्हें 1977 के आंदोलन को भी याद करना चाहिए. तब न तो फेसबुक था, न ट्विटर और न ही इंटरनेट. इसके बावजूद जयप्रकाश की आंधी में इंदिरा गाँधी समेत पूरी कांग्रेस उड़ गयी थी. आज महीनों पहले से ट्विटर तथा फेसबुक के द्वारा प्रचार किया गया फिर भी भीड़ मात्र 50 हज़ार! ये सफलता है या...? इसीलिए अन्ना को अन्ना हज़ारे ही रहने दीजिये, गाँधी मत बनाईये. गाँधी एक ही था. देश में कोई दूसरा गाँधी पैदा नहीं हुआ है.
जिस प्रकार केंद्र सरकार आनन्-फानन में बिना कोई कैबिनेट की मीटिंग या सर्व-दलीय बैठक बुलाये मांगें स्वीकार कर ली वह भी संदेह से परे नहीं है. आज 50 हज़ार लोगों के प्रतिनिधियों को मसौदा समिति में रखा गया है. कल अगर 5 लाख लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर आयें और अपना भागीदारी मांगें और बोलें कि असली आंदोलनकारी हम हैं तो मनमोहन सरकार क्या करेगी? आप सोचिये!
अन्ना हज़ारे ने ए. राजा पर '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाला' का हवाला देकर कई आरोप लगाये. मगर ए. राजा को निर्दोष तथा '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाले' को नकारने वाले कपिल सिब्बल मसौदा समिति में हैं. यहाँ अन्ना ने सिब्बल को कैसे बर्दाश्त कर लिया और क्यूँ? साथ ही शांति भूषण एवं प्रशांत भूषण (बाप-बेटे) तथा खुद अन्ना हज़ारे को कमिटि में रहना लोगों के दिमाग में सवाल पैदा कर रहा है. क्या गाँधी या जेपी ने ऐसा किया था? क्या पूरे देश में केवल दो ही काबिल संविधानविद हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार और सिविल सोसायटी के बीच परदे के पीछे कोई खिचड़ी पक रही हो जिसकी भनक आम जनता को नहीं है!
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