सितंबर 20, 2010

जहां हो गुरू का अपमान वहां भला कैसा सम्मान!

अंजू सिंह
बीते दिनों पहलवान शुशील कुमार ने
विश्व कुश्ती चैंपियनशिपजीती तो भारतीय खेल प्रेमियों को खुशी तो हुई पर रज भी। रज की वजह रही सुशील कुमार के माननीय गुरू सतपालका अपमान! जहां सुशील के विश्व कुश्ती चैंपियन बनने का गर्व है, वहीं उसी चैंपियन के प्राथमिक और परम्परागत गुरू सतपाल का गलत तरीके से अपमान करना वाकई देश के लिए शर्म की बात है। शायद हमारे खेल मंत्री एमएस गिल भूल गए कि एक खिलाड़ी के प्राथमिक पराम्परागत गुरू का सम्मान कैसे किया जाता है? चैंपियनशिप जीतने के बाद पहलवान सुशील कुमार अपने गुरू सतपाल और सरकारी कोच यशवीर के साथ खेल मंत्री एमएस गिल से भेंट करने उनके निवास पर पहुंचे थे और वहीं पर विश्व चैंपियन के साथ फोटो खिंचवाने और जीत का सारा श्रेय लेने के चक्कर में सुशील के गुरू सतपाल का अपमान कर दिया। दरअसल हुआ यूं कि गिल ने फोटो खिंचवाने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय कोच यशवीर को आगे आने के लिए कहते हुए सतपाल को हट जाने का इशारा किया। यहां मुद्दा ये नहीं है कि कोच यशवीर को ही फोटो खिंचवाने के लिए ही क्यों बुलाया, बल्कि मुद्दा ये है खेल मंत्री ने वाहवाही और सुर्खी में आने के लिए विजेता के माननीय गुरू का अपमान किया। एक शिष्य बेशक विश्व विजेता बन जाएं, लेकिन वो अपने गुरू के सामने हमेशा शिष्य ही रहता है और अगर उसी शिष्य के सामने उसके गुरू के साथ अपमानजनक तरीका अपनाया जाए तो खिलाड़ी का हौंसला बुलंद नहीं हो सकता। वैसे भी जहां गुरू का अपमान हो वहां भला सम्मान कैसे हो सकता है?’ गिल ये कैसे भूल सकते हैं कि बेशक सुशील कुमार ने कोच यशवीर की उपस्थिति में विश्व चैंपियनशिप जीती हो, मगर उस चैंपियन की बुनियाद तो सतपाल ने ही रखी है और सुशील कुमार के आज विजेता होने के पीछे बीते कल और आज में सतपाल की मेहनत को कम नहीं आंका जा सकता। ऐसा नहीं है कि सुशील के गुरू सतपाल कोई गुमनाम नाम हैं, बल्कि वे खुद 1982 एशियाई खेल में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं और बीते वर्ष उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार से भी नवाजा गया था। इससे बड़ी बात ये है कि खुद सुशील कुमार का कहना ये है कि बचपन से पहलवानी के गुर सिखाने वाले प्राथमिक गुरू सतपाल की वे बहुत इज्जत करते हैं और उनकी श्रद्धा करते हैं, तो इस पर तो खेल मंत्री का कुछ कहना बनता भी नहीं है। , देश में खिलाड़ियों को मांजने और निखरने से ज्यादा मीडिया में छाने और वाहवाही लुटने की रहती है। उक्त उदाहरण इसके लिए काफी है। अगर खेल मंत्री के रवैये के विपरीत देखें तो पता चलेगा कि बुनियादी और प्राथमिक प्रयासों से जितने खिलाड़ी सफल हुए हैं उनमें से बेहद कम सफल रहे हैं, सरकारी तंत्र से बने खिलाड़ी। क्षमता और विशेषता को आंककर गुरू उन्हें विशेष खेल के खिलाड़ी बनाते हंै सतपाल जैसे गुरू। भारत में क्षमता, विशेषता के बीच खिलाड़ियों की कमी नहीं है, फिर भी युवाओं से लबरेज देश में चुनिंदा खिलाड़ी ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाए हुए हैं, वे अपने बल बदौलत बनाएं हैं कि सरकारी रहमोकरम पर। सरकार के ढूलमूल रवैये के कारण ही प्रतिभाएं उभर नहीं पाती हैं। अच्छा होगा सरकारी खेल तंत्र प्रतिभावान , ना कि जिन गुरूओं ने अपने शिष्यों को आज चमकने लायक बनाया है उनका अपमान करे!

सितंबर 18, 2010

बिहार को चाहिए १९९० वाला लालू

रंजीत रंजन

बिहार विधानसभा चुनाव का विगुल बज चुका है। सभी राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने प्यादे सेट कर रहे हैं। मुख्य मुकाबला राजग और राजद+लोजपा गठबंधन के बीच होने वाला है। नीतीश कुमार तथा लालू प्रसाद टिकट के इच्छुक उम्मीदवारों का साक्षात्कार ले रहे हैं। वायोडाटा लिया जा रहा है। भाषण देने की प्रैक्टिस करवाई जा रही है। पार्टी मुख्यालयों में मेले जैसा माहौल है। सत्ता पक्ष के द्वारा सुशासन तथा विपक्ष के द्वारा कुशासन का राग अलापा जा रहा है। 'ऐसा कोई सगा नहीं, नीतीश जिसको ठगा नहीं' जैसे जुमले राजद खेमे में सुनाई पड़रहे हैं। दोनों पक्ष जातीय समीकरण जोड़-तोड़ में भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं। इस बीच लालू प्रसाद का बयान "बिहार में पिछड़ों का शासन मेरे वजह से है" तथा अगड़ी जातियों के लिए १० फीसदी आरक्षण की मांग कर लालू प्रसाद ने एक और चुनावी पासा फ़ेंक दिया है।

दरअसल, सुशासन की आंधी में लालू प्रसाद के पास और कोई चारा भी नहीं है। 'माई' समीकरण में नीतीश कुमार सेंध लगा चुके हैं और लालू प्रसाद को पता है कि अगड़े जाति के लोग सुशासन बाबु से नाराज़ चल रहे हैं। नेतृत्वहीन बिहार कांग्रेस दल-बदलूओं की जमात बनकर रह गई है और उसकी अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है। ऐसे में लालू प्रसाद ने अगड़ी जातियों के लिए आरक्षण की मांग कर उन्हें पटाने की एक कोशिश जरूर की है। लेकिन उनकी इस कोशिश में हीं उनकी नाकामी भी छिपी हुयी है। लालू प्रसाद मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं तथा उप-मुख्यमंत्री पद के लिए मुस्लिम मुख्यमंत्री का माला जपने वाले रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस को प्रोजेक्ट किया जा रहा है। ख़बरें ये भी आ रही है कि रामविलास पासवान एक और मुसलमान उप-मुख्यमंत्री की मांग कर रहे हैं। यानी कुल मिलाकर यहाँ भी अगड़ों के लिए कुछ नहीं है। जहाँ तक लालू प्रसाद की विश्वसनीयता का सवाल है, १९९५ के चुनाव में भी उन्होंने घोषणा की थी कि चुनाव जीतने के बाद किसी दलित को उप-मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। लेकिन सत्तासीन होने के बद लालू प्रसाद ने किसी को आसपास भटकने भी नहीं दिया। चारा घोटाला में संलिप्त पाए जाने के बाद जब गद्दी छोड़ने की बारी आई तो सारे लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर 'हाउस वाईफ' राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। यहीं पर लालू प्रसाद चुक गए, वरना आज वे देश की राजनीति में शिखर पर होते।

लालू प्रसाद का कैरियर देखें तो १९९० में वे अपनी ही पार्टी के रामसुंदर दास को पछाड़कर सीएम की गद्दी कब्जाने में सफल हुए थे। तब नीतीश कुमार ने विश्वनाथ प्रताप से आग्रह किया था कि किसी युवा को मुख्यमंत्री बनाया जाये और उन्होंने लालू प्रसाद का नाम का प्रस्ताव रखा था। सीएम बनने के बाद लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार के साथ क्या सुलूक किया सब जानते हैं। जिस समय लालू सीएम बने थे उस समय बिहार की राजनीति में सामंती लोगों की तूती बोलती थी। लालू प्रसाद ने सभी सामाजिक समीकरणों को हीं बदल दिया। १५ साल ताक अपना राज चलवाया तथा आज़ादी के बाद से उपेक्षित पड़े वर्गों को सम्मान और सत्ता प्राप्ति का एहसास कराया। सन १९९० से १९९५ के बीच लालू प्रसाद देश में होनेवाले संभावित परिवर्तनों के अगुआ नेताओं में थे। उन्होंने उस मानसिकता पर जमकर प्रहार किया था जो यथा स्थिति बनाये रखने के लिए जिम्मेदार थी। हालाँकि ये बात भी शत-प्रतिशत सही है कि इस दौरान लालू प्रसाद ने विकास कि ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। अपने समाज के लोगों का वर्चस्व कैसे कायम हो इस पर उन्होंने ज्यादा ध्यान दिया। १९९० तक ठेकों का काम भी अगड़ों के हीं पास था, क्योंकि उन्हीं के समाज के मुख्यमंत्री ज्यादा बने तथा सामाजिक ढांचे पर भी उन्हीं का दबदबा था। लालू प्रसाद ने उसे तोड़ा। सत्ता के मद में मदहोश लालू 'माई' समीकरण के बदौलत १५ साल राज करते रहे, लेकिन विकास के नाम पर अति-पिछड़ों और मुसलमानों को एकदम भुला दिया। लालू प्रसाद अति-पिछड़ों और दलितों को अगड़ों एवं सामंती ताकतों से डराकर वोट लेते रहे तो मुसलमानों को आडवाणी और भाजपा का भय दिखाकर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते रहे। लालू प्रसाद ने सामंती ताकतों का विरोध तो किया, पर उसकी बहुत सी बुराइयों को लालूकरण कर दिया। हालाँकि बुद्धिजीवि लोग अभी भी मानते हैं कि बेशक लालू प्रसाद ने १५ सालों में बिहार को २० साल पीछे ढकेल दिया, लेकिन जो सामाजिक परिवर्तन उन्होंने किया उससे राज्य के गरीब-पिछड़ों को नई जिंदगी मिली। ये लालू की ही देन है कि आज बिहार का हर अमीर-गरीब, अगड़े-पिछड़े सभी सिर उठाकर चलते हैं। ऐसे में लालू प्रसाद का बयान कि आज बिहार में पिछड़ों का शासन उनके वजह से है गलत नहीं होगा।

खेल में मंझे खिलाड़ी लालू प्रसाद एक बार फिर मैदान में हैं। राजनीतिक पासे फ़ेंक रहे हैं, लेकिन लगता है पिछली गलतियों से सीख नहीं ले रहे। एक तरफ संभावित उम्मीदवारों का साक्षात्कार ले रहे हैं तो दूसरी ओर जातीयता का खेल भी खेल रहे हैं। ऐसे समय में जब बिहार में सिर्फ विकास की बातें हो रही है। लालू प्रसाद कहते हैं कि वे बदल गए हैं। बिहार की जनता भी लालू में १९९० वाला लालू ढूंढ़ रही है। जिसमे सामाजिक परिवर्तन की भूख हो, विकास की बातें हो, लेकिन जातीय द्विवेश की भावना न हो। अब देखने वाली बात होगी कि लालू जनता कि उम्मीदों पर कितना खरा उतारते हैं।

...ये जनता की अग्नि परीक्षा है!

रंजीत रंजन
पिछले दिनों संपन्न हुए एक सेमिनार के दौरान दिल्ली के एक मित्र ने मुझसे पूछा कि बिहार में एक बार फिर नीतीश कुमार की ही सरकार बनेगी? मैंने कहा: चुनाव की घोषणा तो हो चुकी है देखिये...होता क्या है? मेरे जवाब से उन्हें जरा भी संतुष्टि नहीं हुयी। जैसे वे सुनना चाहते थे 'हाँ! किसी भी हाल में सरकार राजग की ही बनेगी। जनता भारी बहुमत से नीतीश कुमार को फिर से सीएम बनाएगी'। इसमे कोई संदेह नहीं कि पूरे देश में बिहार के विकास और नीतीश कुमार की सुशासन की चर्चा हो रही है। ऐसे में लोगों को लग रहा है कि अगली सरकार भी नीतीश कुमार की ही बनेगी। नीतीश कुमार सत्ता में वापस आते हैं या नहीं ये तो २४ नवम्बर को ही पता चलेगा, जब चुनावी नतीजे हमारे सामने होंगे। लेकिन इतना साफ है कि इस बार बिहार में पहली बार विकास चुनावी मुद्दा बनने जा रहा है। लालू प्रसाद ने भी कहा है कि १५ साल के शासन के दौरान उनसे गलतियां हुई हैं। गलतियों की स्वीकारोक्ति में ही नीतीश की सुशासन और विकास पर मुहर है। बावजूद इसके सभी राजनीतिक पार्टियाँ जातीय समीकरण पर ही जोर दे रही हैं। नीतीश कुमार का दागी आनंद मोहन, तस्लीमुद्दीन के घर जाना , पूर्व सांसद अरुण कुमार, निष्कासित सांसद जगदीश शर्मा तथा राज्यसभा सदस्य एजाज़ अली को पार्टी में वापस लेना इस बात का उदाहरण है कि सत्ता पक्ष विकास की बातें चाहे जितना के ले, उसे विकास के मुद्दे पर जीत का भरोसा नहीं है। कांग्रेस को आशा है कि नीतीश कुमार से खफा अगड़ी जातियों के वोट उसे मिलेंगे। दल-बदलूओं की जमात बनी बिहार कांग्रेस मृगतृष्णा का शिकार है। वहीं लालू खेमें की बात करें तो पूरा खेल जातीय समीकरण के बदौलत ही खेलने की तयारी है। लालू प्रसाद का 'माई' समीकरण में रामविलास पासवान की जाती का वोट जोड़ दिया जाये तो राजद+लोजपा गठबंधन राजग पर भारी पड़ता दिख रहा है। क्योंकि बिहार में इन जातियों के लोग विकास की बातें तो करते हैं लेकिन जब वोट देने की बारी आती है तो वे अपना नेता लालू प्रसाद और रामविलास पासवास को ही मानते हैं।
खैर...कौन पार्टी कितनी सीटें लेकर आएगी इसकी परीक्षा तो २१ अक्तूबर से २० नवम्बर तक होने वाली है। अगर राजग सत्ता में वापस आती है तो देश की जनता समझेगी बिहार की जनता ने विकास की बटन को दबाया है। और अगर राजग सत्ता से बाहर हुई तो कोई भी नेता विकास की बात करने की हिम्मत नहीं करेगा। इस चुनाव में न तो नीतीश कुमार की परीक्षा है, न लालू प्रसाद की और न ही रामविलास पासवान की! इस बार जनता की अग्नि परीक्षा है कि उसे विकास चाहिए या जातीय राजनीती या फिर से जंगल राज?