सितंबर 15, 2012

तीन बच्चे घर पर हैं हजारों पहाड़ पर

  • तीस साल में एक लाख से ज्यादा पेड़ लगा चुके हैं सिकंदर
  • ब्रह्मयोनी पहाड़ को पर्यटन स्थल बनाना चाहते हैं सिकंदर
  • घर की आर्थिक हालत खराब लेकिन चिंता पूरे विश्व की

कहा जाता है कि गया में बिना पेड़ के पहाड़ होता है और बिना पानी के नदी। यही बात टिल्हा धर्मशाला के समिप रहनेवाले दिलीप कुमार उर्फ सिकंदर के दिल पर लग गई और उन्होंने पहाड़ों पर वृक्षारोपण करने की ठानी। 46 वर्षीय सिकंदर ने पिछले 30 सालों में ब्रह्मयोनी पहाड़ पर एक लाख से ज्यादा पेड़ लगाए जिसमें से तीस हजार से ज्यादा पेड़ अब बड़े वृक्ष का रूप ले चुके हैं। सिकंदर ने हमें बताया कि 1982 से ही वे पेड़ लगा रहे हैं। इस बार भी छः हजार पेड़ लगाने का लक्ष्य है जिसमें से लगभग दो हजार लगा चुके हैं।

जब हम ब्रह्मयोनी पहाड़ पर पहुंचे तो हमने वहां देखा कि सिकंदर ने देश के तमाम महापुरूषों के नाम पर पेड़ लगाए हैं। जैसेः महात्मा गांधी स्मृति वृक्ष, सरदार पटेल स्मृति वृक्ष आदि। वहां लगाए गए पेड़ों में फलदार वृक्षों जैसे:आमए अमरूद, जामुन, पीपल, बरगद, गुलर, पाकड़ की संख्या अधिक है। उन्होंने हमें बताया कि पक्षियों को आकर्षित करने के लिए फलदार वृक्ष लगाए हैं। विलुप्त हो रहे कई पक्षियों का आवागमन भी शुरू हो गया है।

सिकंदर ने अपनी पढ़ाई-लिखाई दसवीं कक्षा तक की है। लेकिन उन्हें पता है कि दिनों-दिन पेड़ों का काटा जा रहा है जिसका असर जलवायु पर पड़ रहा है। दिनों-दिन बढ़ रही गर्मी और घटता जल स्तर उसी का परिणाम है। यही कारण है कि महज़ एक चापाकल से वे हजारों पेड़ का पटवन करते हैं। गर्मियों के दिनों में तो रात-रात भर, दो-तीन बजे भोर तक पेड़ों का पटवन करते रहते हैं। जिस चापाकल से एक गैलन पानी भरना नागवार गुज़रता है, सिकंदर 50-60 गैलन पानी प्रतिदिन भरते हैं। साथ ही पेड़ों की सुरक्षा के लिए भी काफी इंतजाम करना पड़ता है। किसी प्रकार बांस-बल्ली का जुगाड़ कर वे पेड़ों को घेरते हैं तों जानवरों से बचाव तो हो जाता है, लेकिन अतिक्रमण के कारण भी लोग पेड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। उन्हें इस बात का मलाल है कि बीते तीस साल में सरकार या किसी संस्था के द्वारा किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली।
 
सिकंदर इस बात से चिंतित नहीं हैं कि उनके घर में चुल्हा कैसे जलेगा, दो वक्त की रोटी का इंतजाम कैसे होगा और बच्चों की परवरिश कैसे होगी? जब हमने उनसे पूछा ‘आपके कितने बच्चे हैं?’ तो उन्होंने जवाब दिया ‘तीन घर पर हैं, हजारों पहाड़ पर हैं’। आर्थिक तंगी झेल रहे सिकंदर की चिंता बस इस बात की है कि अगर पेड़-पौधे नहीं रहे तो आनेवाली पिढ़ी को ऑक्सीजन और जल कहां से मिलेगा?

कभी विरान रहनेवाला ब्रह्मयोनी पहाड़ का दृश्य आज हरा-भरा और काफी मनोरम दिखता है। साथ ही बरसात के दिनों में पहाड़ से गिर रहा झरना पर्यटकों को अपनी ओर खींचता है और बड़ी सेख्या में लोग यहां पिकनिक मनाने आते हैं। सिकंदर का सपना है कि इस जगह को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए।

जून 10, 2012

फिर भी डिम्पल निर्विरोध!


बड़े ही सीधे तरीके से डिम्पल यादव कन्नौज लोकसभा सीट से निर्विरोध सांसद चुन ली गई। हालांकि उत्तरप्रदेश में इससे पहले भी ऐसा दो बार हुआ है। 1952 में इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव में पी.सी. टण्डन और 1962 के चुनाव में टिहरी लोकसभा सीट से महाराजा मानवेन्द्र शाह निर्विरोध चुने गए थे। डिम्पल ने उ.प्र. में तीसरी तथा देश में 44 वीं निर्विरोध जीत दर्ज की हैं। चुनाव आयोग के अनुसार 1952 के लोकसभा चुनाव में 10 तथा 1957 के लोकसभा चुनाव में 11 सांसद निर्विरोध जीतकर संसद पहुंचे थे। लेकिन तब और अब की राजनीतिक और समाजिक परिस्थितियों में आसमान जमीन का अंतर है। तब कांग्रेस आजादी की लहर पर उपजी फसल काट रही थी। विपक्ष का अस्तित्व न के बराबर था। आज कांग्रेस, भाजपा, बसपा के अलावा दर्जनों क्षेत्रीय पार्टियां, फिर भी डिम्पल निर्विरोध!

 पिछले विधानसभा चुनाव के सम्पन्न हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां गला फाड़-फाड़कर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रही थी। अचानक से ऐसा क्या हो गया कि इतनी बड़ी राजनीतिक परिपक्वता दिखाई देने लगी कि डिम्पल के खिलाफ किसी भी पार्टी के द्वारा एक उम्मीदवार तक नहीं उतारा गया? इस सवाल के जवाब ढूंढने में जो तथ्य सामने आते हैं वे बड़े मजेदार है, दिलचस्प भी हैं मगर बड़े गंभीर हैं।

कांग्रेस ने तो शुरू से ही कन्नौज में दिलचस्पी नहीं ली। क्यूंकि  उसकी नजर कन्नौज से ज़्यादा राष्ट्रपति भवन पर है, और अपने किसी कठपुतली को राष्ट्रपति भवन भेजने के लिए उसे समाजवादी पार्टी का समर्थन की ज़रूरत होगी। ऐसे समय में कांगे्रस मुलायम परिवार को नाराज करना नहीं चाहती थी। साथ ही ममता की बैशाखी पर टिकी मनमोहन सरकार को आपातकाल के लिए ममता का विकल्प चाहिए, जिसके लिए मुलायम का नाम सटीक बैठता है,  और मुलायम को भी केन्द्र में मंत्री बनने की बेचैनी रहती ही है। इससे साइकिल और हाथ का रिश्ता तो समझ में आता है, मगर बसपा को क्या हो गया, ये समझने की ज़रूरत है। कहने को तो कहा जा सकता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में जनता की मार से बद्हवाश पड़ी बसपा में हिम्मत ही नहीं थी कि सपा से टकराए। सीधे-सीधे तो ये चल सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं। जानकारों के अनुसार मायावती घोटालों से बचने के लिए मुख्यमंत्री की पत्नी के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं की।

अब बात भाजपा की। पहले उत्तरप्रदेश भाजपा चुनाव लड़ने से ही इनकार करती है। फिर आनन-फानन में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी चुनाव लड़ने की घोषणा करते हैं। उम्मीदवार जगदेव यादव समय पर नामांकन करने नहीं पहुंच पाए और चुनाव लड़ने से वंचित रह गए। चाल और चरित्र की बात करने वाली पार्टी की चाल इतनी धीमी थी कि उसके उम्मीदवार समय की कमी के कारण नामांकण दाखिल नहीं कर पाए, आप समझ सकते हैं भाजपा कितनी जिम्मेदार पार्टी है!जो दो लोग नामांकन दाखिल कर पाए थे वे हैं संयुक्त समाजवादी दल के दशरथ शंखवार और निर्दलीय प्रत्याशी संजीव कुमार। इन्होंने भी अपने नाम वापस ले लिए। कहा जा रहा है कि ये सपा के ही डमी उम्मीदवार थे। 

अमुमन कहा जाता है कि सपा गुंडों की पार्टी है। अपराधियों को संरक्षण देती है। तो क्या डिम्पल को निर्विरोध दिल्ली भेजने वाली घटना से मान लिया जाए कि सत्ताधारी पार्टी से सभी लोग सचमुच इतने घबरा गए हैं कि कोई खड़ा होने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाया? क्या राज्य में अपराधियों का बोलबाला होने के आरोप पर एक मुहर है डिम्पल को निर्विराध चुना जाना? या फिर इस खेल में ऐसा भी कोई खेल खेला गया जो आम लोगों की समझ से बाहर हो। क्यूंकि  यहां एक सवाल ये भी है कि 2009 मे आगरा से लोकसभा चुनाव हारनेवाले राजबब्बर ने डिम्पल यादव को अखिलेश सिंह के द्वारा खाली की गई फरोजाबाद सीट के उपचुनाव में एक लाख से ज्यादा वोटों से हराया था। इस बार फिर कन्नौज सीट अखिलेश सिंह के द्वारा ही खाली की गई है, प्रत्याशी भी वही हैं, बस परिणाम अप्रत्याशित है।

मई 02, 2012

ग्रामीण पर्यटन की असीम संभावनाएं है गया के ‘भूरहा’ में

बचपन से ही ऋषि दुर्वासा की भूमि दुर्वासा नगर यानि भूरहा (गुरुआ) से मेरा लगाव रहा है.  तब भूरहा को हम सिर्फ तीन कारणों से जानते थे. एक प्रसिद्ध भूरहा मेला, दूसरा छठ तथा तीसरा बड़ी संख्या में यहाँ होने वाली निर्धन परिवारों की शादियाँ. तब हमें पता नहीं था कि आम जनता से लेकर शासक-प्रशासक की नज़र में उपेक्षित रहनेवाली ये भूमि इतनी समृद्ध है कि कई प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों में इसका वर्णन स्वर्णिम अक्षरों में किया गया है. रामायण की इन पक्तियों के द्वारा मैं अपनी बात रखने कि कोशिश कर रहा हूँ.


                                         अयोध्यायाद्यश्रथि रामो, गयाश्राद्धार्थानिकैस्सह।
                                         दिशा क्रोशा निशि-विश्रामो गयायार्नैऋत्यां दिशि।।
 ( पूर्ण श्राद्ध्-रत्नाकर, गुरूपद, बनारस, गया श्राद्ध, सर्ग-4, 13वां श्लोक, वेंकटेश प्रेस, मुंबई ।)
 अनुवाद:  अयोध्या से दशरथ नंदन श्री राम अपनी सेना के साथ श्राद्ध करने के लिए चलते हुए गया से दस कोस  की दूरी पर नैऋृ दिशा में रात्री-विश्राम के लिए।
अगस्त्युवाच-
काश्या-गया मार्गे शोणं पुनः पुना नदी।
तदग्रे गुरूवने गच्छ अत्रीसुनू सुतः शिवः।।
निशि गमयाश्रमे रामः तदिशाने गयाशिरः।
तत्र गत्वा महाबाहो पिण्डं देही श्रद्धया।। 
(ब्रह्म-रामायण, मुमुच्छु-काण्ड्, सर्ग-47, श्लोक संख्या- 67-६८)
अनुवाद- श्री राम को समझाते हुए अगस्त्य मुनी बोले:
हे राम! काशि से गया की ओर जानेवाले सोन और पुनपुन दो सजला नदियां हैं, इसके आगे गुरूवन में जाना। वहां पर अत्रि-अनुसूया के तीसरे पुत्र दुर्वासा के आश्रम में रात्री विश्राम करना। वहां ईशान कोण में गयाशिर है, वहां जाकर हे महाबाहो, तुम श्रद्धा के साथ पिण्ड दान देना।


कई नज़रिए से विचार करने के बाद लगता है कि इस पवित्र भूमि में ग्रामीण पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने की सभी संभावनाएं मौजूद हैं, मगर इसके लिए कुछ कदम उठाने होंगे।
 
भूरहा की प्रकृतिजनित संभावनाएं जैसे मौसम, जलकुण्ड, मनोरम दृश्य लोगों को दुर्वासा नगर के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि यहां के जल ग्रहण करने से पेट के कई रोग दूर हो जाते हैं। साथ ही यहां नहाने से कई प्रकार की त्वचा बिमारियां ठीक हो जाती हैं। यहां के कण-कण में आकर्षण है।
साल में दो बार लगने वाला विशाल मेंला भी इस जगह की खास पहचान है। बैशाखी के दिन सतुआनी मेंले में लाखों की संख्या में पर्यटक यहां आते हैं और स्फूटीत जलधारा से नहा-धोकर श्रद्धालू सतु ग्रहण करते हैं। माना जाता है कि गर्मी में सतु खाना स्वास्थ्य के दृष्टीकोण से अच्छा है। ऋषि दुर्वासा भी यहां सतु ही खाते थे। इस दिन सतु खाना बिहार में एक परंपरा है। मगर एक साथ हजारों लोगों को सतु खाते देखना बड़ा मनभावन लगता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भी लाखों की संख्या में लोग यहां स्नान करने आते हैं। इस दिन भी यहां बड़ा मेला लगता है। छठ पूजा में लोग दूर-दूर से अर्ध्य देने आते हैं। यहां खूबसूरत  सूर्य मंदिर भी है।
पिण्ड दान के लिए यूँ तो ‘गया’ पूरी दूनिया में प्रसिद्ध है। लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि भूरहा में भी पिण्ड दान होता है। गरीब तबके के लोग भारी संख्या में यहां पिण्ड दान करते हैं, क्योंकि यहां खर्च कम पड़ता है और आसानी से हो भी जाता है। यहां सौ से ज़्यादा सालों से पिण्ड दान होते आ रहा है।

हिन्दुओं के लिए भूरहा किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है। इसके ठीक बगल में बसे दुब्बा गढ़ से सैंकड़ो की संख्या में निकली मूर्तियां प्रमाणित करती है कि इसका संबंध भगवान बुद्ध से भी रहा है। इतिहासकार मानते हैं कि भगवान बुद्ध बोधगया से सारनाथ की यात्रा के दौरान इसी रास्ते से गुजरे थे, और यहां से कुछ दूरी पर बसे गुनेरी गांव में तो वे रात भी गुजारे थे, जिसका प्रमाण मिलता है। हजारों की संख्या में मूर्तियां चोरी होने के बावजूद अभी भी भूरहा में तथा दुब्बा गढ़ पर सैकड़ों की संख्या में मूर्तियां मौजूद हैं। घर हो या बगीचा, स्कूल हो या खेत-खलीहान हर जगह भगवान बुद्ध की मूर्ति है। कहीं लोग उसे स्थानीय देवाता के रूप में पूजा कर रहे हैं तो कई लोग अज्ञानतावश कलाकृत पत्थरों का इस्तेमाल उसपर बैठने या दूसरे कामों में कर रहे हैं। हालांकि इन मूर्तियों में ज्यादातर विक्षिप्त अवस्था में हैं। भगवान बुद्ध की जितनी मूर्तियां यहां हैं उतनी और कहीं नहीं हैं। भले ही वक्त की दौड़ में यह राजगीर और बोधगया से काफी पीछे छूट गया हो लेकिन यहां का मनोरम दृश्य पर्यटकों का पीछा नहीं छोड़ता।


सवाल यह है कि भूरहा को ग्रामीण पर्यटन स्थल में विकसित किया जाता है तो क्या होगा? भूरहा के आसपास की भौगोलिक स्थिति पर नज़र डालें तो गुनेरी, नसेर में भी बुद्ध की मूर्तियां हैं जो गवाह है कि इस क्षेत्र से बौद्ध धर्म का पुराना संबंध रहा है। साथ ही मां मांडेश्वरी पहाड़ी का मनोरम और हरी-भरी वादियां तथा गुरूआ की गरिमामयी इतिहास भी गुरूआवासियों को गुरूआवासी होने पर न सिर्फ गर्व का एहसास दिलाती है, बल्कि यहां की मिट्टी और नैसर्गिक सौंदर्य उन्हें बार-बार खींचती है, भले ही वे देश-विदेश के किसी कोने में क्यूँ  न हों। यही कारण है कि यहां ग्रामीण पर्यटन को आज नया आयाम मिल रहा है।

आज के समय में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वैश्विकरण के इस दौर में पर्यटन उद्योग एक बड़ा उद्योग के रूप में सामने आ रहा है। आजकल भारत के ग्रामीण पर्यटक स्थल विदेशी सैलानियों को भी बहुत भा रहा है। भूरहा को बौद्ध स्थल तथा पर्यटक स्थल के रूप में पहचान मिलने से भूटान, जापान, चीन, थाईलैंड, म्यानमार, श्रीलंका, कोरिया आदि देशों के बौद्ध सैलानियों का आकर्षण  बढ़ेगा। जिससे सरकार को भी राजस्व में फायदा होगा। साथ ही इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोज़गार के भी अवसर उपलब्ध होंगे। आज बाजारीकरण के इस दौर में देखा जा रहा है कि लघु और छोटे उद्योग हाशिए पर है। भूरहा को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने से लघु उद्योग के लिए एक बाजार उपलब्ध हो पाएगा जिसके माध्यम से लोग पारंपरागत कला और संस्कृति को कायम रख सकते हैं। मगर सबसे बड़ी बात ये होगी कि हम अपनी इतिहास के साथ न्याय कर पायेंगे। ज़रूरत है आमलोगों के साथ-साथ युवाओ की भागीदारी बढ़ाने की ताकि इस प्रयास में नई उर्जा का भी संचार हो।
(वेब मीडिया 'जनोक्ति' में 2 मई को प्रकाशित. http://www.janokti.com/ )

अप्रैल 29, 2012

सचिन को राष्ट्रपति बना देते !


सचिन रमेश तेन्दूलकर को राज्यसभा जाना चाहिए था या नहीं, इस विषय पर चौक-चौराहे से लेकर मीडिया और सोशल मीडिया तक बहस चल रही है। सचिन का निर्णय वाकई चौकाने वाला है। कांग्रेस पार्टी से लेकर राष्ट्रपति की बेचैनी तो समझ में आती है, सचिन के सामने कौन सी आफत आ गई थी कि 10 जनपथ में सर टेक आए। दरअसल आपत्ति सचिन  को राज्यसभा जाने या न जाने से नहीं है। ऐसा नहीं है कि सचिन को राज्य सभा जाने से हिन्दुस्तान की किस्मत रातो-रात बदल जाएगी या नहीं जाते तो कोई तुफान आ जाता। सच्चाई तो यही है कि तब भी कुछ नहीं होता अब भी कुछ नहीं होगा।
क्या कोई जवाब दे सकता है कि लता मांगेश्कर को राज्यसभा जाने से देश को कितना फायदा हुआ, शिवाय इसके कि देश के उपरी सदन में उनकी सीट हमेशा खाली ही दिखती है। हां, सचिन के नाम पर कुछ राजनीति जरूर हो जाएगी, जिसकी शुरूआत हो भी चुकी है। विडंबना देखिए, अगस्त 2005 से अफजल गुरू की फांसी की फाईल गृह मंत्रालय से राष्ट्रपति भवन के बीच झूल रही है, एक निर्णय लेने में शर्म महसुस हो रही …और सचिन तेन्दुलकर के नाम पर चंद घंटों में सारी फाइलें और आॅफीसियल औपचारिकताएं पूरी हो गई। देश समझ रही है कि कांग्रेस की ये चाल आगामी चुनाव को लेकर है। कॉमनवेल्थ घोटाले से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला घाटाले से तथा पी.चिदंबरम और अभिषेक मनु सिंघवी के कारनामों से पार्टी और सरकार के चेहरे पहले से ही काले पड़े है। उपर से बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की हरकतें सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहती है। ऐसे में सरकार को कुछ ऐसे मामले चाहिए जिससे अपना चेहरा थोड़ा ठीक-ठाक कर सके ताकि जनता उन्हें पहचान सके। इसके लिए सचिन तेन्दुलकर एक अच्छा विकल्प हैं। इस चाल के साथ ही सरकार और पार्टी ने एक बड़ी साजिश रची है। देश भर में सचिन को भारत रत्न देने की मांग उठती रही है। कांग्रेस कभी नहीं चाहेगी कि सचिन को यह सम्मान मिले। साथ ही वह यह भी नहीं चाहती कि देश में कोई ऐसा चेहरा उभरे जो गांधी परिवार से बड़ा हो।
विश्वास न हो तो इतिहास के पन्ने उलट सकते हैं। आपने देखा कि किस प्रकार महानायक अमिताभ बच्चन को पहले राजनीति में लाया गया फिर बोफोर्स में फंसाया गया। भोले-भाले सचिन के साथ भी ऐसा ही छल किया जा सकता है। यहां समस्या यह है कि सदन में प्रतिदिन नए-नए मुद्दों पर बहस होते हैं। ये क्रिकेट का मैदान नहीं है कि जितना चुप रहेंगे उतना महान कहलाएंगे। यहां तो बोलना ही पड़ेगा। और जब न ही बोलने के इरादे से आएंगे तो ऐसे आने से तो अच्छा है न आना। जब आप किसी समस्या पर अपनी बात रखेंगे या किसी पार्टी के पक्ष में अपनी बात रखेंगे उसी समय सचिन अपना विरोधी गुट तैयार कर लेंगे। और शायद कांग्रेस यही चाहती भी है कि सचिन के खिलाफ बोलने वाला भी गुट तैयार हो ताकि उन्हें भारत रत्न  देने की मांग भी कमजोर पड़े और उनकी लोकप्रियता भी घटे।
सचिन के प्रशंसक इस बात से ज्यादा खफा नहीं हैं कि उनके भगवान राज्यसभा क्यों जा रहे, बल्कि उन्हें इस बात का मलाल है कि सचिन आनन-फानन में 10-जनपथ में हाजिरी क्यों लगा आए? कांग्रेस की चाल और चरित्र को समझने वाली देश की जनता समझ रही है, अगर चुक गए तो बस सचिन। अगर सरकार और कांग्रेस पार्टी सचिन का सम्मान ही करना चाहती है तो एक ही बार देश का राष्ट्रपति ही क्यूं नही बना देती है? कोई विवाद भी नहीं होता। ऐसे भी भारत में देश के राष्ट्रपति को काम ही कितना होता है! जब देश के एक सांसद को आईपीएल के बाजार में बिकते देखना अच्छा लगेगा, और सरकार के अनुसार यह देश की भावना और सचिन का सम्मान है, तो शान से सीना चौड़ा हो जाता जब राष्ट्रपति की निलामी भी आईपीएल के बाजार में होती!