अप्रैल 01, 2013

बिहारियों की भावना का हुआ रामलीला मैदान से सौदा

‘अधिकार-रैली नहीं पोलीटिकल-वार्गेनिंग रैली कहिए
 बीते 17 मार्च को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक ऐतिहासिक रैली हुर्इ। बिहार में सत्ताधारी पार्टी जनता दल युनाइटेड की तरफ से आयोजित इस अधिकार रैली का उददेश्य बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना था। किसी राज्य के सत्तासीन पार्टी के द्वारा देश की राजधानी में भीड़ के दृष्टिकोण से इतनी बड़ी रैली शायद इससे पहले कभी नहीं हुई।

यूँ तो राजधानी कर्इ ऐतिहासिक रैलियों का गवाह रही है। और जब-जब इस मैदान की ऐतिहासिक रैलियों की चर्चा होती है तो भला 25 जुन 1975 की उस रैली को कोर्इ कैसे भूल सकता है जिसमें जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सरकार को तानाशाह करार देते हुए उसे उखाड़ फेंकने का आहवान किया था। मैं जननायक जयप्रकाश नारायण की चर्चा इसलिए कर रहा हंू कि 17 मार्च को हुर्इ रैली के अगुआ उन्हीं के चेले नीतीश कुमार थे। जब इस रैली की तैयारी चल रही थी तब लग रहा था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार केन्द्र सरकार और कांग्रेस के खिलाफ हुंकार भरेंगे और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा की मांग के साथ-साथ महंगार्इ व भ्रष्टाचार जैसे मुददों पर भी सरकार पर हमला बोलेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में रह रही बिहारियों की एक बड़ी आबादी अपने राज्य के विकास और असिमता के नाम पर रामलीला मैदान में तो चली आर्इ मगर भीड़ से गदगद नीतीश लीला को समझ नहीं पाई।  अगले दिन अखबार के पन्नों से साफ हो गया कि नीतीश कुमार ने बिहारियों के भावनाओं का सौदा केन्द्र सरकार के साथ कर डाला जिसकी झलक नीतीश कुमार के भाषण से भी मिलती है, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वितमंत्री पी. चिदंबरम की तारीफ की है। साथ ही उस बात को भी समझने की जरूरत है जिसमें उन्होंने कहा है कि आपलोगों को न दाएं देखने की जरूरत है न बाएं, केवल सीधे देखने की जरूरत है। इसका मतलब ये हुआ कि न कांग्रेस की तरफ देखने की जरूरत है न भाजपा की तरफ, सिर्फ नीतीश कुमार की तरफ देखने की जरूरत है, जो उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में प्रमोट करेगा या कामभर राजनीतिक हिस्सेदारी दे देगा, नीतीश उसी के साथ जाएंगे। अपने भाषण में उन्होंने अन्य पिछड़े राज्यों को भी साथ चलने का न्योता दिया और कहा कि जो पिछड़े राज्यों का साथ देगा बिहार उसके साथ खड़ा होगा। इसके द्वारा नीतीश ने ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और अखिलेश सिंह यादव को भी पटाने की कोशिश की है।

हालांकि नीतीश की यह चाल समझने के लिए रामलीला मैदान भी जाने की जरूरत नहीं थी। रैली की पूर्व संध्या पर ही सूत्रों से खबर निकलकर सामने आर्इ कि नीतीश कुमार केन्द्र सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलने जा रहे, जितना पालीटिकल वार्गेनिंग होना था हो चुका। अब सिर्फ तारीफ में कसीदे पढ़े जाएंगे और हुआ भी यही। 18 मार्च को प्रधानमंत्री के साथ हुर्इ नीतीश कुमार की मुलाकात और 19 मार्च को अखबारों के पन्नों पर छपी तस्वीरों के सहित खबरें भी आपको बहुत कुछ अहसास करा सकती हैं। जिसमें साफ तौर पर कहा गया कि विशेष राज्य का दर्जा के नाम पर नीतीश कुमार ने भविष्य की राजनीति की ओर कदम बढ़ाए। इस दौरान उनकी मुलाकात पी. चिदंबरम और योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया से भी हुर्इ। सियासी गलियारों में ‘बैक-डोर डील की खबरों के बीच वित्तमंत्री ने 23 मार्च को कहा कि केन्द्र फिलहाल किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं है। लेकिन इस वक्तव्य को भी सिर्फ राजनीतिक बयान ही मानना चाहिए, क्योंकि ये भी डील का ही हिस्सा है, और उसी डील के तहत रैली के बाद बिहार को कर्इ योजनाओं में प्राथमिकता भी मिली है। बजट सत्र के दौरान श्री चिदंबरम ने ही तो कहा था कि विशेष राज्य का दर्जा देने के शर्तों पर फिर से विचार करने की जरूरत है। केन्द्र सरकार से डीएमके की समर्थन वापसी और मुलायम के तेवरों के बीच मनमोहन सिंह अपनी सरकार की सिथरता के प्रति आश्वस्त हैं तो उसके पीछे भी शायद नीतीश नामक टैबलेट ही है जिसका इस्तेमाल आकस्मिक दवाई के रूप में किया जा सकता है।

इस रैली को सफल बनाने के लिए पार्टी के लगभग सभी मंत्रियों, सांसदों, विधायकों सहित सभी जिला अध्यक्षों को एनसीआर में तकरीबन दो सप्ताह पहले से लगाया गया था। ताकि इस क्षेत्र में रह रहे बिहार के लोग रैली में आ सकें। पार्टी नेताओं के द्वारा इन क्षेत्रों में रह रहे दिहाड़ी पर काम कर रहे बिहारियों को बताया गया कि अगर विशेष राज्य का दर्जा मिल गया तो उन्हें बिहार में ही नौकरी मिल जाएगी। बिहार का इंफ्रास्ट्रक्चर सुधर जाएगा। बिहार के छात्रों को पढ़ार्इ के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा। भला ऐसा मनमोहक और लोकलुभावन बात पर कौन न फिदा हो जाए। सो भारी तादाद में चल पड़े रामलीला। किसी को क्या जरूरत ये सोचने की कि एक चुनाव जंगल राज के नाम पर और एक चुनाव सुशासन के नाम पर जीतने वाले नीतीश कुमार के पास शायद इसके अलावा और कोर्इ चारा नहीं है। कोर्इ तो बताए नीतीश कुमार के शासनकाल में बिहार में इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर सड़क बनाने के अलावा और कितना काम हुआ है? कितने उधोग धंधे और कितने कल-कारखाने लगे हैं? नौकरशाही व टेबल के नीचे से रूपए लेकर काम करने की प्रक्रिया को बेशर्मी से आगे बढ़ाने के अलावा क्या उप्लब्धी रही है नीतीश सरकार की! अब जब नीतीश कुमार की राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं उड़ान ले रही हैं और खुद को दिल्ली के सिंहासन पर बैठे देखना चाहते हैं तो ऐसे में वे ‘विशेष राज्य का दर्जा के मुददे को ही मोहरा बनाना चाह रहे हैं। जिससे सभी वर्ग के लोग साथ भी आ जाएं और भाजपा को भी तरीके से साध सकें और इन सबों के बीच 2014 के लिए राजनीतिक सौदा भी हो जाए, भले ही इसकी कीमत बिहारियों की भावना और स्वाभिमान ही क्यों न हो! ऐसे समय में जयप्रकाश नारायण की राजनीतिक शैली बरबस याद आ जाती है जिन्होंने राजनीति कभी सत्ता के लिए नहीं बल्कि जनकल्याण के लिए किया था।
चलते-चलते किसी कवि की ये मुझे पंक्तियाँ याद आ रही है…
डुगडुगी ले झोपड़ी के द्वार तक आ जाएंगे
गजब की जादूगरी है जेहन में छा जाएंगे
ये सियासत के मदारी हैं अदा दिखलाएंगे
ये तुम्हारे हाथ से ही मुल्क को खा जाएंगे।