सितंबर 18, 2010

बिहार को चाहिए १९९० वाला लालू

रंजीत रंजन

बिहार विधानसभा चुनाव का विगुल बज चुका है। सभी राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने प्यादे सेट कर रहे हैं। मुख्य मुकाबला राजग और राजद+लोजपा गठबंधन के बीच होने वाला है। नीतीश कुमार तथा लालू प्रसाद टिकट के इच्छुक उम्मीदवारों का साक्षात्कार ले रहे हैं। वायोडाटा लिया जा रहा है। भाषण देने की प्रैक्टिस करवाई जा रही है। पार्टी मुख्यालयों में मेले जैसा माहौल है। सत्ता पक्ष के द्वारा सुशासन तथा विपक्ष के द्वारा कुशासन का राग अलापा जा रहा है। 'ऐसा कोई सगा नहीं, नीतीश जिसको ठगा नहीं' जैसे जुमले राजद खेमे में सुनाई पड़रहे हैं। दोनों पक्ष जातीय समीकरण जोड़-तोड़ में भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं। इस बीच लालू प्रसाद का बयान "बिहार में पिछड़ों का शासन मेरे वजह से है" तथा अगड़ी जातियों के लिए १० फीसदी आरक्षण की मांग कर लालू प्रसाद ने एक और चुनावी पासा फ़ेंक दिया है।

दरअसल, सुशासन की आंधी में लालू प्रसाद के पास और कोई चारा भी नहीं है। 'माई' समीकरण में नीतीश कुमार सेंध लगा चुके हैं और लालू प्रसाद को पता है कि अगड़े जाति के लोग सुशासन बाबु से नाराज़ चल रहे हैं। नेतृत्वहीन बिहार कांग्रेस दल-बदलूओं की जमात बनकर रह गई है और उसकी अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है। ऐसे में लालू प्रसाद ने अगड़ी जातियों के लिए आरक्षण की मांग कर उन्हें पटाने की एक कोशिश जरूर की है। लेकिन उनकी इस कोशिश में हीं उनकी नाकामी भी छिपी हुयी है। लालू प्रसाद मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं तथा उप-मुख्यमंत्री पद के लिए मुस्लिम मुख्यमंत्री का माला जपने वाले रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस को प्रोजेक्ट किया जा रहा है। ख़बरें ये भी आ रही है कि रामविलास पासवान एक और मुसलमान उप-मुख्यमंत्री की मांग कर रहे हैं। यानी कुल मिलाकर यहाँ भी अगड़ों के लिए कुछ नहीं है। जहाँ तक लालू प्रसाद की विश्वसनीयता का सवाल है, १९९५ के चुनाव में भी उन्होंने घोषणा की थी कि चुनाव जीतने के बाद किसी दलित को उप-मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। लेकिन सत्तासीन होने के बद लालू प्रसाद ने किसी को आसपास भटकने भी नहीं दिया। चारा घोटाला में संलिप्त पाए जाने के बाद जब गद्दी छोड़ने की बारी आई तो सारे लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर 'हाउस वाईफ' राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। यहीं पर लालू प्रसाद चुक गए, वरना आज वे देश की राजनीति में शिखर पर होते।

लालू प्रसाद का कैरियर देखें तो १९९० में वे अपनी ही पार्टी के रामसुंदर दास को पछाड़कर सीएम की गद्दी कब्जाने में सफल हुए थे। तब नीतीश कुमार ने विश्वनाथ प्रताप से आग्रह किया था कि किसी युवा को मुख्यमंत्री बनाया जाये और उन्होंने लालू प्रसाद का नाम का प्रस्ताव रखा था। सीएम बनने के बाद लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार के साथ क्या सुलूक किया सब जानते हैं। जिस समय लालू सीएम बने थे उस समय बिहार की राजनीति में सामंती लोगों की तूती बोलती थी। लालू प्रसाद ने सभी सामाजिक समीकरणों को हीं बदल दिया। १५ साल ताक अपना राज चलवाया तथा आज़ादी के बाद से उपेक्षित पड़े वर्गों को सम्मान और सत्ता प्राप्ति का एहसास कराया। सन १९९० से १९९५ के बीच लालू प्रसाद देश में होनेवाले संभावित परिवर्तनों के अगुआ नेताओं में थे। उन्होंने उस मानसिकता पर जमकर प्रहार किया था जो यथा स्थिति बनाये रखने के लिए जिम्मेदार थी। हालाँकि ये बात भी शत-प्रतिशत सही है कि इस दौरान लालू प्रसाद ने विकास कि ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। अपने समाज के लोगों का वर्चस्व कैसे कायम हो इस पर उन्होंने ज्यादा ध्यान दिया। १९९० तक ठेकों का काम भी अगड़ों के हीं पास था, क्योंकि उन्हीं के समाज के मुख्यमंत्री ज्यादा बने तथा सामाजिक ढांचे पर भी उन्हीं का दबदबा था। लालू प्रसाद ने उसे तोड़ा। सत्ता के मद में मदहोश लालू 'माई' समीकरण के बदौलत १५ साल राज करते रहे, लेकिन विकास के नाम पर अति-पिछड़ों और मुसलमानों को एकदम भुला दिया। लालू प्रसाद अति-पिछड़ों और दलितों को अगड़ों एवं सामंती ताकतों से डराकर वोट लेते रहे तो मुसलमानों को आडवाणी और भाजपा का भय दिखाकर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते रहे। लालू प्रसाद ने सामंती ताकतों का विरोध तो किया, पर उसकी बहुत सी बुराइयों को लालूकरण कर दिया। हालाँकि बुद्धिजीवि लोग अभी भी मानते हैं कि बेशक लालू प्रसाद ने १५ सालों में बिहार को २० साल पीछे ढकेल दिया, लेकिन जो सामाजिक परिवर्तन उन्होंने किया उससे राज्य के गरीब-पिछड़ों को नई जिंदगी मिली। ये लालू की ही देन है कि आज बिहार का हर अमीर-गरीब, अगड़े-पिछड़े सभी सिर उठाकर चलते हैं। ऐसे में लालू प्रसाद का बयान कि आज बिहार में पिछड़ों का शासन उनके वजह से है गलत नहीं होगा।

खेल में मंझे खिलाड़ी लालू प्रसाद एक बार फिर मैदान में हैं। राजनीतिक पासे फ़ेंक रहे हैं, लेकिन लगता है पिछली गलतियों से सीख नहीं ले रहे। एक तरफ संभावित उम्मीदवारों का साक्षात्कार ले रहे हैं तो दूसरी ओर जातीयता का खेल भी खेल रहे हैं। ऐसे समय में जब बिहार में सिर्फ विकास की बातें हो रही है। लालू प्रसाद कहते हैं कि वे बदल गए हैं। बिहार की जनता भी लालू में १९९० वाला लालू ढूंढ़ रही है। जिसमे सामाजिक परिवर्तन की भूख हो, विकास की बातें हो, लेकिन जातीय द्विवेश की भावना न हो। अब देखने वाली बात होगी कि लालू जनता कि उम्मीदों पर कितना खरा उतारते हैं।

5 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

maza aa gaya padhkar. aap bilkul sahi kah rahe hain
dhnyabad!

Unknown ने कहा…

app ka atickal bhut badya hai rir

avi-pankaj ने कहा…

apke vichar se yahn mai jara v santusht nahi hu. laloo prasad ko to kisi v hal me nahin aana chahiye. baki sab chalega.....laloo k chhod sabkuchh chalega.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Laloo ji .... kabhi nahi ...

बेनामी ने कहा…

bihar pe kaphi home work ki hai aapne.
from: saurav