अप्रैल 13, 2011

अन्ना को अन्ना हज़ारे ही रहने दीजिये, गाँधी मत बनाईये...


'मुझे मालूम नहीं था कि इतने लोग आयेंगे, मैं तो सिर्फ अपना काम कर रहा था.' ये कहना है अन्ना हजारे का. उन्होंने 9-अप्रैल को आमरण-अनशन समाप्त करते वक्त लोगों को संबोधित करते हुए कहा. इस प्रकार पांच दिन से चला आ रहा भ्रस्ताचार विरोधी आन्दोलन समाप्त हो गया. जन-लोकपाल विधेयक के मुद्दे पर गठित मसौदा समिति में सरकार व सिविल सोसायटी के पांच-पांच लोग होंगे. इसी फैसले के साथ अन्ना के हजारों कार्यकर्ता हज़ारे की जय-जयकार करने लगे. खुशियाँ मनाई जाने लगी. वन्दे-मातरम से आसमां गूंजने लगा. इसे दूसरी आज़ादी तक कहा गया. अन्ना को दूसरा गाँधी के रूप में प्रोजेक्ट किया गया.


इस मुद्दे को टीआरपी के लिये भूखा मीडिया ने इस प्रकार भुनाने की कोशिश की कि जैसे अन्ना के समर्थन में पूरा देश जंतर-मंतर पर उतर आया हो! जैसे अन्ना हज़ारे कोई जादू की छड़ी हैं कि उनके फूंक मारते ही भ्रस्टाचार छू-मंतर हो जायेगा. ऐसी ही कुछ बातें मेरे गले के नीचे नहीं उतर रही है जिसकी मैं चर्चा करना चाहूँगा.


मीडिया के द्वारा आंदोलन की भीड़ को पहले दिन 2 हज़ार, दूसरे दिन 3 -हज़ार' तीसरे दिन 20-हज़ार, चौथे दिन 45-हज़ार तथा पांचवें व अंतिम दिन 50- हज़ार बताया गया. अंतिम दिन जिस समय अनशन तोड़ा जा रहा था उस समय मैं वहां था पर मेरी बातों पर आप विश्वास मत कीजिये. सिर्फ सच्चाई की कल्पना कीजिये. अगर 50 हज़ार लोग जंतर-मंतर पर इकट्ठे हो जाते तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली की रफ़्तार रुक जाती. याद कीजिये, पिछले साल जब गन्ना किसानों का आंदोलन दिल्ली में हुआ था तब किस प्रकार दिल्ली ठहर गयी थी और मीडिया ने किस प्रकार नकारात्मक रूप से उस आंदोलन को दिखाया था. खैर छोडिये इस पुराने मुद्दे को. बीबीसी के अनुसार अन्ना हज़ारे के इस आंदोलन में लोगों की संख्या 20 हज़ार थी. तो फिर घरेलू मीडिया संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बात को बतंगड़ क्यूँ बनाया?

सैकड़ों कैमरे लगाये मीडिया वाले अगर एक घंटे के लिए भी वहां से हट जाते और वहां एक हज़ार लोग भी रुक जाते तो मैं इसे एक आंदोलन मान लेता. मैंने देखा कि मंच के आसपास बैठे लोग जो दिल्ली के बाहर से आये थे, वे लोग ही भाषण सुन रहे थे. बाकि लोग टीवी पर दिखने के लिए नाच-गा रहे थे या हवन-भजन-कीर्तन कर रहे थे.


उपस्थित भीड़ जिसे लोग जन-सैलाब कह रहे हैं, उसकी एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि इस सैलाब में ज़्यादातर लोग उच्च-मध्यवर्गीय तथा उच्च वर्गीय परिवार से थे. भारत में 70 फीसदी लोग किसान हैं तथा लगभग इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. अब जरा सोचिये... एक अरब इक्कीस करोड़ के इस देश में मात्र 50 हज़ार लोग, अन्य शहरों को मिला दें तो 1 लाख लोग इस मुहिम में शामिल हुए, जिसमे किसानों की संख्या नगण्य है. और इसे आप भारत की जनता का आंदोलन कह रहे हैं? क्या ये कहना लोकतंत्र का अपमान नहीं होगा?

अभी आईपीएल का दौर चल रहा है. एक मैच में 30 से 50 हज़ार दर्शक होते हैं. इतने लोग तो अन्ना हज़ारे के साथ भी एकत्रित नहीं हुए और आप इसे आंदोलन कह रहे हैं!


पता नहीं क्यूँ, कुछ सिरफिरे लोग अन्ना हज़ारे की तुलना महात्मा गाँधी से कर रहे हैं. जो लोग ऐसा कर रहे हैं उनसे मेरा सवाल है कि क्या गाँधी ने किसी भी आंदोलन की शुरुआत दिल्ली, कोलकाता, मुंबई या चेन्नई जैसे महानगरों से की थी? नहीं न! उन्होंने आंदोलन की शुरुआत चंपारण जैसे गाँव से की थी, दांडी यात्रा की शुरुआत गुजरात के दांडी गाँव से की थी. क्यूंकि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. जो लोग इस सफलता पर थिरक रहे हैं उन्हें 1977 के आंदोलन को भी याद करना चाहिए. तब न तो फेसबुक था, न ट्विटर और न ही इंटरनेट. इसके बावजूद जयप्रकाश की आंधी में इंदिरा गाँधी समेत पूरी कांग्रेस उड़ गयी थी. आज महीनों पहले से ट्विटर तथा फेसबुक के द्वारा प्रचार किया गया फिर भी भीड़ मात्र 50 हज़ार! ये सफलता है या...? इसीलिए अन्ना को अन्ना हज़ारे ही रहने दीजिये, गाँधी मत बनाईये. गाँधी एक ही था. देश में कोई दूसरा गाँधी पैदा नहीं हुआ है.


जिस प्रकार केंद्र सरकार आनन्-फानन में बिना कोई कैबिनेट की मीटिंग या सर्व-दलीय बैठक बुलाये मांगें स्वीकार कर ली वह भी संदेह से परे नहीं है. आज 50 हज़ार लोगों के प्रतिनिधियों को मसौदा समिति में रखा गया है. कल अगर 5 लाख लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर आयें और अपना भागीदारी मांगें और बोलें कि असली आंदोलनकारी हम हैं तो मनमोहन सरकार क्या करेगी? आप सोचिये!


अन्ना हज़ारे ने ए. राजा पर '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाला' का हवाला देकर कई आरोप लगाये. मगर ए. राजा को निर्दोष तथा '२-जी स्पेक्ट्रम घोटाले' को नकारने वाले कपिल सिब्बल मसौदा समिति में हैं. यहाँ अन्ना ने सिब्बल को कैसे बर्दाश्त कर लिया और क्यूँ? साथ ही शांति भूषण एवं प्रशांत भूषण (बाप-बेटे) तथा खुद अन्ना हज़ारे को कमिटि में रहना लोगों के दिमाग में सवाल पैदा कर रहा है. क्या गाँधी या जेपी ने ऐसा किया था? क्या पूरे देश में केवल दो ही काबिल संविधानविद हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार और सिविल सोसायटी के बीच परदे के पीछे कोई खिचड़ी पक रही हो जिसकी भनक आम जनता को नहीं है!


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अप्रैल 06, 2011

कितना सफल होगा मनमोहनी प्रयास?

रंजीत रंजन
भारत जब मोटेरा में आस्ट्रेलिया को हराकर सेमीफाइनल में पहुँच गया और ये साफ हो गया कि अगला मुकाबला चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान से होगा तब पूरी दुनिया की नज़र इस मुकाबले पर टिक गई. भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट प्रेमी इस मैच का इंतजार करने लगे. मीडिया 24 में से 14 घंटे क्रिकेट पर खर्च करने लगा. मौके को भांपकर प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह ने क्रिकेट की पिच से कूटनीतिक गुगली फेंक दी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी को मैच देखने के लिए आमंत्रित कर लिया.
याद कीजिये वो दृश्य जब खेल शुरू होने के पहले दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने मैदान पर दोनों टीमों के खिलाडियों से मिले. खुशनुमा माहौल में खेल समाप्त हुआ. दोनों प्रधानमंत्रियों के साथ-साथ दोनों देशों के लोग मैच का आनंद उठाये और बेहतर संबंधों के लिए दुआएं की. मगर सवाल यह है कि क्रिकेट के पिच से संबंधों को सुधारने का मनमोहनी प्रयास कितना सफल होगा?
प्रयास अच्छा है, लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज कड़वी यादें और अनुभव आशंका पैदा करने के लिए काफी हैं. इससे पहले भी कई बार क्रिकेट कूटनीतिक प्रयास का हिस्सा बन चुका है. 1987 के विश्व कप के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल ज़िया उल हक जयपुर आये थे. 2004 में भारतीय टीम पाकिस्तान दौरे पर थी तब राहुल गाँधी समेत कई कांग्रेसी नेताओं ने पाकिस्तान जाकर मैच देखा था. तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने महेंद्र सिंह धोनी की ज़ुल्फों की तारीफ़ की थी. लेकिन इससे क्या भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध सुधर गए?
बेशक नहीं! अब भी शायद ऐसा न हो. खेलों से यह उम्मीद करना भी नहीं चाहिए. खेल खेल है और खेल को खेल ही रहने देना चाहिए.
खेल के अलावा भी भारत ने कई बार पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने का प्रयास किया है. 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए थे. बदले में हमें क्या मिला- कारगिल युद्ध! इसके बावजूद हमने मुशर्रफ को आगरा बुलाया. इससे क्या मिला- कुछ नहीं! हम खुद संबंधों को तोड़ते भी हैं और फिर संबंधों को जोड़ने का प्रयास भी करते हैं. संसद पर हमले के बाद हमने पाकिस्तान से सभी प्रकार के सम्बन्ध तोड़ लिए थे. उसके बाद सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किसने किया- भारत ने! 26 /11 के बाद हमने फिर सारे सम्बन्ध तोड़ लिए. यह कहकर कि पाकिस्तान जब तक सीमा पार से आतंकवाद तथा घुसपैठ बंद नहीं करेगा तब तक उसके साथ कोई बातचीत नहीं होगी. मगर बातचीत का पहल किसने किया- भारत ने! क्या सीमा पर से आतंकवाद ख़त्म हो गए या घुसपैठ? प्रधानमंत्री को इस सवाल का जवाब देना चाहिए!
जहाँ तक मेरा विचार है विभिन्न प्रकार के घोटालों से घिरे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मोहाली मैच के बहाने लोगों का ध्यान घोटालों से भटकना चाहते थे जिसमे वे सफल भी हुए हैं. इस काम में मीडिया भी उनका क्या साथ निभाया है. और ये बात डा० सिंह को पता था कि मीडिया को क्रिकेटीय रोग लगा हुआ है, समाचार चैनलों से भ्रस्टाचार लगभग गायब है, ऐसे में इस पहल के द्वारा एक तीर से दो निशाना साधा जा सकता है. एक- लोग भ्रस्टाचार के मुद्दे से भटक जायेंगे और दूसरा अमेरिका दादा भी खुश हो जायेगा.
शर्म-अल-शेख तथा थिम्पू में भी दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच मुलाकात व बातचीत हो चुकी है. इसके बाद विदेश सचिवों के बीच कई दौर की बातचीत हुई है. लेकिन बातचीत किन-किन मुद्दों पर हुई है, तथा कहाँ तक पहुंची है अब तक ख़बरें मीडिया में नहीं आई है. शायद भारत सरकार यहाँ भी विकीलीक्स के खुलासे का इंतज़ार कर रही है. भले ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कहा है कि मनमोहन सिंह ने क्रिकेट देखने का निमंत्रण देकर विशाल ह्रदय का परिचय दिया है. वे शांति और सम्पन्नता के लिए कम करना चाहते हैं. लेकिन दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में शासन इस्लामाबाद का नहीं रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय का चलता है. ऐसे में गिलानी को बुलाकर सम्बन्ध सुधारने का पहल बेमानी है. और इस गन्दी राजनीति के बीच में बार-बार क्रिकेट को न लाया जाए तो ज्यादा बेहतर है . क्यूंकि राजनीति का असर खेलों पर पड़ता है लेकिन खेलों का असर राजनीति पर पड़ जाए ऐसा नहीं है. भारत और पाकिस्तान के बीच कई संवेदनशील मुद्दे हैं सुलझाने के लिए जिसे खेल-खेल में तो कतई नहीं सुलझाये जा सकते. और न ही यह एक दिवसीय क्रिकेट कि तरह है कि परिणाम एक दिन में आ जाए.

सितंबर 20, 2010

जहां हो गुरू का अपमान वहां भला कैसा सम्मान!

अंजू सिंह
बीते दिनों पहलवान शुशील कुमार ने
विश्व कुश्ती चैंपियनशिपजीती तो भारतीय खेल प्रेमियों को खुशी तो हुई पर रज भी। रज की वजह रही सुशील कुमार के माननीय गुरू सतपालका अपमान! जहां सुशील के विश्व कुश्ती चैंपियन बनने का गर्व है, वहीं उसी चैंपियन के प्राथमिक और परम्परागत गुरू सतपाल का गलत तरीके से अपमान करना वाकई देश के लिए शर्म की बात है। शायद हमारे खेल मंत्री एमएस गिल भूल गए कि एक खिलाड़ी के प्राथमिक पराम्परागत गुरू का सम्मान कैसे किया जाता है? चैंपियनशिप जीतने के बाद पहलवान सुशील कुमार अपने गुरू सतपाल और सरकारी कोच यशवीर के साथ खेल मंत्री एमएस गिल से भेंट करने उनके निवास पर पहुंचे थे और वहीं पर विश्व चैंपियन के साथ फोटो खिंचवाने और जीत का सारा श्रेय लेने के चक्कर में सुशील के गुरू सतपाल का अपमान कर दिया। दरअसल हुआ यूं कि गिल ने फोटो खिंचवाने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय कोच यशवीर को आगे आने के लिए कहते हुए सतपाल को हट जाने का इशारा किया। यहां मुद्दा ये नहीं है कि कोच यशवीर को ही फोटो खिंचवाने के लिए ही क्यों बुलाया, बल्कि मुद्दा ये है खेल मंत्री ने वाहवाही और सुर्खी में आने के लिए विजेता के माननीय गुरू का अपमान किया। एक शिष्य बेशक विश्व विजेता बन जाएं, लेकिन वो अपने गुरू के सामने हमेशा शिष्य ही रहता है और अगर उसी शिष्य के सामने उसके गुरू के साथ अपमानजनक तरीका अपनाया जाए तो खिलाड़ी का हौंसला बुलंद नहीं हो सकता। वैसे भी जहां गुरू का अपमान हो वहां भला सम्मान कैसे हो सकता है?’ गिल ये कैसे भूल सकते हैं कि बेशक सुशील कुमार ने कोच यशवीर की उपस्थिति में विश्व चैंपियनशिप जीती हो, मगर उस चैंपियन की बुनियाद तो सतपाल ने ही रखी है और सुशील कुमार के आज विजेता होने के पीछे बीते कल और आज में सतपाल की मेहनत को कम नहीं आंका जा सकता। ऐसा नहीं है कि सुशील के गुरू सतपाल कोई गुमनाम नाम हैं, बल्कि वे खुद 1982 एशियाई खेल में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं और बीते वर्ष उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार से भी नवाजा गया था। इससे बड़ी बात ये है कि खुद सुशील कुमार का कहना ये है कि बचपन से पहलवानी के गुर सिखाने वाले प्राथमिक गुरू सतपाल की वे बहुत इज्जत करते हैं और उनकी श्रद्धा करते हैं, तो इस पर तो खेल मंत्री का कुछ कहना बनता भी नहीं है। , देश में खिलाड़ियों को मांजने और निखरने से ज्यादा मीडिया में छाने और वाहवाही लुटने की रहती है। उक्त उदाहरण इसके लिए काफी है। अगर खेल मंत्री के रवैये के विपरीत देखें तो पता चलेगा कि बुनियादी और प्राथमिक प्रयासों से जितने खिलाड़ी सफल हुए हैं उनमें से बेहद कम सफल रहे हैं, सरकारी तंत्र से बने खिलाड़ी। क्षमता और विशेषता को आंककर गुरू उन्हें विशेष खेल के खिलाड़ी बनाते हंै सतपाल जैसे गुरू। भारत में क्षमता, विशेषता के बीच खिलाड़ियों की कमी नहीं है, फिर भी युवाओं से लबरेज देश में चुनिंदा खिलाड़ी ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाए हुए हैं, वे अपने बल बदौलत बनाएं हैं कि सरकारी रहमोकरम पर। सरकार के ढूलमूल रवैये के कारण ही प्रतिभाएं उभर नहीं पाती हैं। अच्छा होगा सरकारी खेल तंत्र प्रतिभावान , ना कि जिन गुरूओं ने अपने शिष्यों को आज चमकने लायक बनाया है उनका अपमान करे!

सितंबर 18, 2010

बिहार को चाहिए १९९० वाला लालू

रंजीत रंजन

बिहार विधानसभा चुनाव का विगुल बज चुका है। सभी राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने प्यादे सेट कर रहे हैं। मुख्य मुकाबला राजग और राजद+लोजपा गठबंधन के बीच होने वाला है। नीतीश कुमार तथा लालू प्रसाद टिकट के इच्छुक उम्मीदवारों का साक्षात्कार ले रहे हैं। वायोडाटा लिया जा रहा है। भाषण देने की प्रैक्टिस करवाई जा रही है। पार्टी मुख्यालयों में मेले जैसा माहौल है। सत्ता पक्ष के द्वारा सुशासन तथा विपक्ष के द्वारा कुशासन का राग अलापा जा रहा है। 'ऐसा कोई सगा नहीं, नीतीश जिसको ठगा नहीं' जैसे जुमले राजद खेमे में सुनाई पड़रहे हैं। दोनों पक्ष जातीय समीकरण जोड़-तोड़ में भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं। इस बीच लालू प्रसाद का बयान "बिहार में पिछड़ों का शासन मेरे वजह से है" तथा अगड़ी जातियों के लिए १० फीसदी आरक्षण की मांग कर लालू प्रसाद ने एक और चुनावी पासा फ़ेंक दिया है।

दरअसल, सुशासन की आंधी में लालू प्रसाद के पास और कोई चारा भी नहीं है। 'माई' समीकरण में नीतीश कुमार सेंध लगा चुके हैं और लालू प्रसाद को पता है कि अगड़े जाति के लोग सुशासन बाबु से नाराज़ चल रहे हैं। नेतृत्वहीन बिहार कांग्रेस दल-बदलूओं की जमात बनकर रह गई है और उसकी अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है। ऐसे में लालू प्रसाद ने अगड़ी जातियों के लिए आरक्षण की मांग कर उन्हें पटाने की एक कोशिश जरूर की है। लेकिन उनकी इस कोशिश में हीं उनकी नाकामी भी छिपी हुयी है। लालू प्रसाद मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं तथा उप-मुख्यमंत्री पद के लिए मुस्लिम मुख्यमंत्री का माला जपने वाले रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस को प्रोजेक्ट किया जा रहा है। ख़बरें ये भी आ रही है कि रामविलास पासवान एक और मुसलमान उप-मुख्यमंत्री की मांग कर रहे हैं। यानी कुल मिलाकर यहाँ भी अगड़ों के लिए कुछ नहीं है। जहाँ तक लालू प्रसाद की विश्वसनीयता का सवाल है, १९९५ के चुनाव में भी उन्होंने घोषणा की थी कि चुनाव जीतने के बाद किसी दलित को उप-मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। लेकिन सत्तासीन होने के बद लालू प्रसाद ने किसी को आसपास भटकने भी नहीं दिया। चारा घोटाला में संलिप्त पाए जाने के बाद जब गद्दी छोड़ने की बारी आई तो सारे लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर 'हाउस वाईफ' राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। यहीं पर लालू प्रसाद चुक गए, वरना आज वे देश की राजनीति में शिखर पर होते।

लालू प्रसाद का कैरियर देखें तो १९९० में वे अपनी ही पार्टी के रामसुंदर दास को पछाड़कर सीएम की गद्दी कब्जाने में सफल हुए थे। तब नीतीश कुमार ने विश्वनाथ प्रताप से आग्रह किया था कि किसी युवा को मुख्यमंत्री बनाया जाये और उन्होंने लालू प्रसाद का नाम का प्रस्ताव रखा था। सीएम बनने के बाद लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार के साथ क्या सुलूक किया सब जानते हैं। जिस समय लालू सीएम बने थे उस समय बिहार की राजनीति में सामंती लोगों की तूती बोलती थी। लालू प्रसाद ने सभी सामाजिक समीकरणों को हीं बदल दिया। १५ साल ताक अपना राज चलवाया तथा आज़ादी के बाद से उपेक्षित पड़े वर्गों को सम्मान और सत्ता प्राप्ति का एहसास कराया। सन १९९० से १९९५ के बीच लालू प्रसाद देश में होनेवाले संभावित परिवर्तनों के अगुआ नेताओं में थे। उन्होंने उस मानसिकता पर जमकर प्रहार किया था जो यथा स्थिति बनाये रखने के लिए जिम्मेदार थी। हालाँकि ये बात भी शत-प्रतिशत सही है कि इस दौरान लालू प्रसाद ने विकास कि ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। अपने समाज के लोगों का वर्चस्व कैसे कायम हो इस पर उन्होंने ज्यादा ध्यान दिया। १९९० तक ठेकों का काम भी अगड़ों के हीं पास था, क्योंकि उन्हीं के समाज के मुख्यमंत्री ज्यादा बने तथा सामाजिक ढांचे पर भी उन्हीं का दबदबा था। लालू प्रसाद ने उसे तोड़ा। सत्ता के मद में मदहोश लालू 'माई' समीकरण के बदौलत १५ साल राज करते रहे, लेकिन विकास के नाम पर अति-पिछड़ों और मुसलमानों को एकदम भुला दिया। लालू प्रसाद अति-पिछड़ों और दलितों को अगड़ों एवं सामंती ताकतों से डराकर वोट लेते रहे तो मुसलमानों को आडवाणी और भाजपा का भय दिखाकर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते रहे। लालू प्रसाद ने सामंती ताकतों का विरोध तो किया, पर उसकी बहुत सी बुराइयों को लालूकरण कर दिया। हालाँकि बुद्धिजीवि लोग अभी भी मानते हैं कि बेशक लालू प्रसाद ने १५ सालों में बिहार को २० साल पीछे ढकेल दिया, लेकिन जो सामाजिक परिवर्तन उन्होंने किया उससे राज्य के गरीब-पिछड़ों को नई जिंदगी मिली। ये लालू की ही देन है कि आज बिहार का हर अमीर-गरीब, अगड़े-पिछड़े सभी सिर उठाकर चलते हैं। ऐसे में लालू प्रसाद का बयान कि आज बिहार में पिछड़ों का शासन उनके वजह से है गलत नहीं होगा।

खेल में मंझे खिलाड़ी लालू प्रसाद एक बार फिर मैदान में हैं। राजनीतिक पासे फ़ेंक रहे हैं, लेकिन लगता है पिछली गलतियों से सीख नहीं ले रहे। एक तरफ संभावित उम्मीदवारों का साक्षात्कार ले रहे हैं तो दूसरी ओर जातीयता का खेल भी खेल रहे हैं। ऐसे समय में जब बिहार में सिर्फ विकास की बातें हो रही है। लालू प्रसाद कहते हैं कि वे बदल गए हैं। बिहार की जनता भी लालू में १९९० वाला लालू ढूंढ़ रही है। जिसमे सामाजिक परिवर्तन की भूख हो, विकास की बातें हो, लेकिन जातीय द्विवेश की भावना न हो। अब देखने वाली बात होगी कि लालू जनता कि उम्मीदों पर कितना खरा उतारते हैं।

...ये जनता की अग्नि परीक्षा है!

रंजीत रंजन
पिछले दिनों संपन्न हुए एक सेमिनार के दौरान दिल्ली के एक मित्र ने मुझसे पूछा कि बिहार में एक बार फिर नीतीश कुमार की ही सरकार बनेगी? मैंने कहा: चुनाव की घोषणा तो हो चुकी है देखिये...होता क्या है? मेरे जवाब से उन्हें जरा भी संतुष्टि नहीं हुयी। जैसे वे सुनना चाहते थे 'हाँ! किसी भी हाल में सरकार राजग की ही बनेगी। जनता भारी बहुमत से नीतीश कुमार को फिर से सीएम बनाएगी'। इसमे कोई संदेह नहीं कि पूरे देश में बिहार के विकास और नीतीश कुमार की सुशासन की चर्चा हो रही है। ऐसे में लोगों को लग रहा है कि अगली सरकार भी नीतीश कुमार की ही बनेगी। नीतीश कुमार सत्ता में वापस आते हैं या नहीं ये तो २४ नवम्बर को ही पता चलेगा, जब चुनावी नतीजे हमारे सामने होंगे। लेकिन इतना साफ है कि इस बार बिहार में पहली बार विकास चुनावी मुद्दा बनने जा रहा है। लालू प्रसाद ने भी कहा है कि १५ साल के शासन के दौरान उनसे गलतियां हुई हैं। गलतियों की स्वीकारोक्ति में ही नीतीश की सुशासन और विकास पर मुहर है। बावजूद इसके सभी राजनीतिक पार्टियाँ जातीय समीकरण पर ही जोर दे रही हैं। नीतीश कुमार का दागी आनंद मोहन, तस्लीमुद्दीन के घर जाना , पूर्व सांसद अरुण कुमार, निष्कासित सांसद जगदीश शर्मा तथा राज्यसभा सदस्य एजाज़ अली को पार्टी में वापस लेना इस बात का उदाहरण है कि सत्ता पक्ष विकास की बातें चाहे जितना के ले, उसे विकास के मुद्दे पर जीत का भरोसा नहीं है। कांग्रेस को आशा है कि नीतीश कुमार से खफा अगड़ी जातियों के वोट उसे मिलेंगे। दल-बदलूओं की जमात बनी बिहार कांग्रेस मृगतृष्णा का शिकार है। वहीं लालू खेमें की बात करें तो पूरा खेल जातीय समीकरण के बदौलत ही खेलने की तयारी है। लालू प्रसाद का 'माई' समीकरण में रामविलास पासवान की जाती का वोट जोड़ दिया जाये तो राजद+लोजपा गठबंधन राजग पर भारी पड़ता दिख रहा है। क्योंकि बिहार में इन जातियों के लोग विकास की बातें तो करते हैं लेकिन जब वोट देने की बारी आती है तो वे अपना नेता लालू प्रसाद और रामविलास पासवास को ही मानते हैं।
खैर...कौन पार्टी कितनी सीटें लेकर आएगी इसकी परीक्षा तो २१ अक्तूबर से २० नवम्बर तक होने वाली है। अगर राजग सत्ता में वापस आती है तो देश की जनता समझेगी बिहार की जनता ने विकास की बटन को दबाया है। और अगर राजग सत्ता से बाहर हुई तो कोई भी नेता विकास की बात करने की हिम्मत नहीं करेगा। इस चुनाव में न तो नीतीश कुमार की परीक्षा है, न लालू प्रसाद की और न ही रामविलास पासवान की! इस बार जनता की अग्नि परीक्षा है कि उसे विकास चाहिए या जातीय राजनीती या फिर से जंगल राज?

अक्टूबर 21, 2009

कहीं दूर दृष्टि दोष से तो पीड़ित नहीं हैं राहुल?

रंजीत कुमार रंजन
आजकल राहुल गाँधी का दलित प्रेम और गरीब दर्शन सिर चढ़कर बोल रहा है। राहुल मीडिया में भी सुर्खियाँ बटोर रहे हैं। दूसरी तरफ़ विरोधी दलों का पसीना छुट रहा है। लोग आनन-फानन में अनाप-शनाप बोल रहे हैं। सपा वाले लोग राहुल को राजनीति का बच्चा कह कर अपनी भौहें तैर रहे हैं तो भाजपा एवं बहन मायावती इसे नौटंकी कह रही है। लोग असल मुद्दों तक पहुँच हीं नहीं पा रहे हैं। बेचारे राहुल को कितना तकलीफ पहुँचता होगा कि कोई उनकी परेशानी जाने बिना हवा में बयानबाजी कर रहे हैं। कोई उनकी परेशानी समझने को तैयार नहीं, यूँ हीं लोग आलोचना करते जा रहे हैं। तारीफ की जानी चाहिए आरएसएस वालों का, देर हीं सही उनकी परेशानी को समझा और तारीफ कर डाली। अपनी सहानुभूति राहुल को दे दी।
विरोधी पार्टियों की एक आदत होती है। स्थिति का अध्ययन नहीं करती सीधे डायरेक्ट हो जाती है। देखिये! आरएसएस वालों ने अध्ययन किया। मैंने अध्ययन किया, पाया कि लगता है राहुल दूर दृष्टि दोष से पीड़ित हैं।
"दूर दृष्टि दोष" एक ऐसा डिसआर्डर है जिससे पीड़ित व्यक्ति दूर की वस्तु साफ-साफ देख सकता है लेकिन नज़दीक की वस्तु उसे नज़र नहीं आती।
राहुल आजकल भारत की खोज कर रहे हैं। जवाहर लाल नेहरू ने भी भारत की खोज से संबंधित "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" लिखा, शायद राहुल घर के इस पुस्तक को नही पढ़े और उच्च शिक्छा के लिए चले गए सात समंदर पार। उन्हें भारत का कोई विश्वविद्यालय नज़र नहीं आया, उन्हें नज़र आया होर्वार्ड यूंनिवर्सिटी, लन्दन। पढ़ाई पुरी करने के बाद उन्हें नज़र आया भारत। जुड़ गए अपने परिवार के खानदानी पेशे से। अमेठी से सांसद निर्वाचित हुए। अमेठी से उन्हें अमेठी, रायबरेली, बस्ती, श्रीबस्ती का गरीबी , बेरोजगारी नज़र नहीं आया। उन्हें नज़र आई उडीसा में दलितों की स्थिति। चल दिए उडीसा, उनके दिल में उमड़ा दलित प्रेम, खाया दलितों के घर खाना, और बन गए मीडिया के हीरो। अब उनकी नज़र और सार्प हो चुकी थी। hyper metropia अपना जलवा दिखा रहा था। उडीसा से उन्हें नज़र आ रहा था उत्तरप्रदेश। उत्तरप्रदेश से उन्हें वहां के गरीबों-दलितों की स्थिति नज़र नही आती थी। उडीसा से नज़र आ गई। पहुँच गए यु०पी०, बिना प्रशाशनिक सूचना के, दलितों के घर खाए खाना और बिताये रात। मीडिया फिर सर-आंखों पर बिठाया। मायावती को भी लगा जोर का झटका धीरे से, सुरछा का हवाला देकर साधी निशाना, लेकिन फिर चुक गई असल मर्ज़ पकड़ने में। खैर राहुल यु० पी० से दिल्ली आते कि उनकी नज़र झारखण्ड पर गया। पहुँच गए झारखण्ड, शहीद इंसपेक्टर फ्रान्शिस के बहाने, युवाओं का दिल जीतने। लेकिन इस बार एक नई बात हो गई, झारखण्ड से उन्हें दिल्ली नज़र आ गई। दिल्ली से उन्हें दिल्ली कभी नज़र नही आई। झारखण्ड से नज़र आ गई। सो दिल्ली को खोजने वे निकल पड़े साइकिल से। विडम्बना देखिये, राहुल के सुरछाकर्मी महँगी गाड़ियों से और राहुल साइकिल से दिल्ली खोज कर रहे थे। ये नौटंकी नहीं तो और क्या है? मगर ठहरिये! इतनी जल्दी दोष मत दीजिये। अभी और भी बाते बाकी है।
जे० एन0 यु० में आयोजित एक सभा में राहुल गाँधी ने एक प्रश्न उठाया कि "क्या सभी राजनीतिक पार्टियाँ लोकतान्त्रिक है..? उनके जेहन में भाजपा, बसपा, सपा, शिवसेना, राजद, लोजपा, राकंपा.....रही होगी। उन्होंने कभी अपने गिरेबान में नहीं झाँका होगा। झाँका भी होगा तो कांग्रेस में परिवारवाद नज़र नहीं आया होगा उन्हें। दोष उनका नहीं है, क्या करे बेचारे दृष्टि दोष से पीड़ित जो हैं... उन्हें कैसे समझाया जाये के परिवारवाद के मसले पर सबसे पहले कांग्रेस का हीं ओवरवायलिंग की आवश्यकता है।
दूर दृष्टि दोष से राहुल पीड़ित हैं तो इसमें राहुल का क्या दोष है? कभी-कभी यह जेनेटिक भी होता है। जवाहरलाल नेहरु को भी यह दिसआर्डर था, तभी तो उन्हें अपनी पत्नी कमला नेहरु नज़र नहीं आती थी। उन्हें नज़र आती थी भारत के अंतिम गवर्नर जेनर लोर्ड माउन्टबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन। राजीव गाँधी को भी सबकुछ इटली में ही नज़र आता था। उसके बाद जो हुआ सबके सामने है. अब राहुल की बारी है. शादी की उम्र है, लेकिन उनकी नज़र में कोई भारतीये नहीं स्पेनिश लड़की है. इसमें भी राहुल का कोई दोष नहीं है, ऊपर वाले का दोष है, बेचारे पीड़ित जो हैं...अब स्थिति-परिस्थिति का अध्ययन कीजिये. कितना ख़राब लगता है जब लोग बीमार को बीमार कहते हैं, पागल को पागल कहते हैं, अँधा को अँधा कहते हैं.....सोचिये.....कितना खराब लगता होगा राहुल को जब लोग उनकी आलोचना करते होंगे. कितना दर्द होता होगा उनको? कोई तो होता जो उनकी परेशानी समझता? ओह.....बेचारे राहुल!
हाँ! भारत को खोजते-खोजते एक बदलाव आया है राहुल में, दलित-प्रेम करते-करते गरीब दर्शन करने लगे हैं। दृष्टि दोष के कारण हीं सही भारत खोज की नयी नौटंकी एवं गरीब दर्शन, दर्शन का नया शास्त्र अध्ययन करने का मौका मिल रहा है। मायावती जी आप भी उनकी परेशानी को समझिये और बोलिए जय हों राहुल बाबा की!
चलते-चलते.....
जिन्हें नींद में चलने की बीमारी है,
वे क्या जाने पग हल्का या भारी है
पैरों से मिटटी का गहरा नाता है,
इतनी समझ रहे तो फिर हितकारी है.